'जेठमलानी की बद्तमीजी, मीडिया का मौन' में की गई टिप्पणियों पर प्राप्त प्रतिक्रियाएं वर्तमान के कड़वे सच को रेखांकित कर रही हैं! पूरी की पूरी व्यवस्था का कड़वा सच! प्राप्त अनेक प्रतिक्रियाओं में से एक विजय झा का उल्लेख करना चाहूंगा। विजय बहस चाहते हैं इस पर कि आज मीडिया जिस अंधी सुरंग में फंस चुका है, उससे कैसे निकले...? विजय यह भी जानना चाहते हैं कि जब कोई पत्रकार कांग्रेस का एजेंट बनकर किसी से असुविधाजनक सवाल करे, तब जवाब कैसा मिलेगा? विजय की जिज्ञासा है कि जब पूरा का पूरा मीडिया एक स्वर से जय सोनिया...जय मनमोहन...जय अंबानी...जय माल्या...का राग अलाप रहा हो, विपक्ष सीबीआई के डर से मूक बना हो, तो ऐसे माहौल में रामजेठमलानी ने सच बोलने का साहस कर गलत क्या किया?'' रामजेठमलानी के आचरण की आलोचना से इतर जिन लोगों ने मीडिया को आड़े हाथों लिया है उन सभी के विचार कमोबेश विजय के विचार से मिलते-जुलते हैं।
यह ठीक है कि आज मीडिया एक बड़े उद्योग की शक्ल ले चुका है। इसे चलाने के लिये बड़ी पंूजी की जरूरत पड़ती है। अर्थात मीडिया पर आधिपत्य पूंजीपतियों का ही है। किंतु यह पूर्ण सच नहीं कि पूरा का पूरा मीडिया सत्ता के हाथों बिक चुका है या पूंजीपति मालिकों के इशारे पर नाच रहा है। आज भी वैसे प्रकाशन संस्थान और वैसे मीडियाकर्मी, संपादक मौजूद हैं, जो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की पवित्रता को कायम रखने, उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप कार्य निष्पादन के प्रति प्रतिबद्ध हैं। चाहे राजसत्ता हो या पूंजीपति मालिक, उनके अनुचित अथवा अनैतिक दबाव के सामने झुकने को वे तैयार नहीं। मूल्य आधारित तथ्य व उद्देश्यपरक लेखन इनकी विशेषता है। हां, यह ठीक है कि इनकी संख्या नगण्य है। भ्रष्ट व्यवस्था की व्याधियों ने इस पेशे के अधिकांश लोगों को अपने आगोश में जकड़ लिया है। भ्रष्ट राजनीतिकों और भ्रष्ट उद्योगपतियों, व्यवसायियों की तरह यह वर्ग भी धनपिपासु बन चुका है। पीड़ा तब गहरी हो जाती है जब इन लोगों को धन कमाने की सीमा लांघ सत्ता की सीढिय़ों पर चढ़ते देखता हूं! निश्चय ही इस मुकाम पर ये न केवल पत्रकारीय मूल्यों के साथ समझौता करते हैं, सिद्धांतों का सौदा करते हैं, बल्कि कलम को बेच या गिरवी रख रेंगने लगते हैं, बिलबिलाने लगते हैं! यह अवस्था अपवाद के रूप में मौजूद पत्रकारों के लिये निश्चय ही एक चुनौती है। उनके मार्ग में बाधाएं तो आती हैं। समाज व घर-परिवार के स्तर पर उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, दीन-हीन बन उन्हें तानों-कटाक्षों से भी दो-चार होना पड़ता है, मूर्ख व असफल भी निरूपित कर दिये जाते हैं ये लोग! बावजूद इसके ये धन या राजसत्ता के लोभ-प्रलोभन के जाल में नहीं फंसते! ये लेखन को कर्म मानते हैं। फिर दोहरा दूं कि ऐसे लोगों की संख्या नगण्य है! किंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि निरुत्साहित, हताश हो मीडिया के परचम को पैरों तले रौंदने को छोड़ दिया जाय! पूंजी की जरूरत और महत्व के बीच ही पत्रकारीय मूल्यों की रक्षा और इसकी अपेक्षाओं की पूर्ति की दिशा में ईमानदार कार्यनिष्पादन के मार्ग ढूंढ़े जाने चाहिए। मैं अपने अनुभव के आधार पर यह रेखांकित करने की स्थिति में हूं कि अगर संपादक और पत्रकारीय बिरादरी के अन्य वरिष्ठ, ईमानदारी से प्रयास करें तब संचालक अर्थात मालिक भी बगैर किसी प्रलोभन में फंसे, बगैर किसी दबाव में आये पत्रकारीय मूल्यों की रक्षा कर सकता है, मीडिया संस्थाओं की गरिमा-मर्यादा को कायम रख सकता है। रही बात मुनाफे की तो पाठकीय स्वीकृति से मिली पहचान संस्थान को आर्थिक लाभ भी मिला देगी। सिर्फ संयम रखने की जरूरत है। जिस तरह लोकतंत्र में अंतत: निर्णायक जनता होती है, उसी प्रकार समाचार-पत्रों की दुनिया में निर्णायक पाठक ही होता है। औैर यही विशाल पाठकवर्ग ईमानदार-निडर पत्रकारों का सुरक्षा-कवच भी बनेगा।
5 comments:
आपके विचारों से काफी हद तक सहमत हूँ .... अभी भी मीडियां में कुछ ऐसे पत्रकार हैं जो पैसो के लिए काम नहीं करते हैं ...आभार
अभी भी मीडियां में कुछ ऐसे पत्रकार हैं जो पैसो के लिए काम नहीं करते हैं ...आभार
बात सही है पर फ़िर भी मुझे लगता है कि आज यह सबसे बडी समस्या है कि पत्रकारिता मे अच्छे लोग नग्नय क्यों हें और है भी तो इसके परिमर्जन के क्या उपाय किये जा रहे है. आप निचले स्तर पर देखें तो पता चलेगा की स्थिति कितनी भयाबह है. जिन्हें पत्रकार कहा जाता है और जिनकी रिपोर्ट लोग पड्ते-देखते है उनकी सच यह है की सुबह से ही वे लोगों से पैसे ऎटने के लिए निकल जाते है और रेपोर्ट तभी आती है जब नगद नहीं मिलती.
बात कुछ पत्रकारों की नहीं है विनोद जी। लेकिन क्या मीडिया के प्रभावी हिस्से पर पूंजीपतियों का अधिकार नहीं है? अधिकांश पत्रकार जो नौकरियाँ करते हैं उन के दबाव में काम नहीं करते? यह एक कड़वी सचाई है। इसे पिया नहीं जा सकता। लेकिन सब पत्रकार बिके हुए हैं, यह बात अवश्य ही गलत है। पत्रकारिता में आज भी बहुत लोग हैं जो खुल कर सचाई सामने लाते हैं, उस से समझौता नहीं करते। सारा मीडिया बिका हुआ है, यह कहना तो पत्रकारिता के पेशे का घोर अपमान है।
विनोद जी आपके बात से सहमत हूँ , मिडिया में अभी भी बहुत सारे अच्छे पत्रकार और संपादक है, कुछ मिडिया मालिक भी अच्छे है, जिनकी कोशिश है मिडिया की गरिमा को बनाये रखे. और ब्याक्तिगत स्तर पर वे इस कोशिश को अमलीजामा भी पहनाते है. परन्तु इनकी ये कोशिश मिडिया की सामूहिक तस्वीर नहीं बन पाता है, दिक्कत यहाँ पर है.
बाजारबाद समाज के हर क्षेत्र पर हावी है, मूल्यों के गिरावट का दौर है, समाज का कोई अंग इससे अछूता नहीं है. राजनितिक प्रणाली और अफसरशाही के चरित्रों में गिरावट को तो आम जनता आत्मसात कर चूका है. परन्तु मिडिया के मूल्यों में गिरावट को हम आत्मसात करने को तैयार नहीं है. क्योंकि मिडिया सदा से ही आम जनता की आवाज रहा है, आन्दोलन रहा है, विचार और विचारकों का मंच रहा है और सबसे बड़ा एक विश्वास रहा है जिसके लिखे को और कहे को ही सत्य मानते आये है. और जब इस विश्वास को दरकते देखता हूँ तो एक खीज उत्त्पन्न होता है, दर्द होता है, दुःख होता है.
क्या आज की मिडिया हमारे इस भावनाओं को समझने को तैयार है ?
विजय झा
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