15,274 लोगों की मौत के जिम्मेदारों को 2 साल की कैद! वह भी लगभग 25 साल के बाद! भोपाल गैस कांड को दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदियों में से एक बताया गया है। अब अदालत के इस फैसले को एक त्रासदी निरूपित करने को हम मजबूर हैं। सचमुच यह न्याय का एक मजाक है। हमारी न्यायिक व्यवस्था का एक अत्यंत ही कमजोर और त्रासदीदायक पक्ष उजागर हुआ है। विलंबित न्याय के अन्याय में बदल जाने का एक स्याह उदाहरण भी है यह। पीडि़त लोग दुखी मन से इस फैसले को चुनौती देने की तैयारी कर रहे हैं। पीडि़तों की मदद के लिए सक्रिय संगठन अपने ढाई दशक के प्रयास के ऐसे हश्र से हतोत्साहित हैं। यह स्वाभाविक भी है। इस फैसले के कुछ दिन पूर्व भोपाल के चौराहों पर आरोपियों के पुतलों को फांसी पर लटकाने वाले अवाक् हो आरोपियों को टहलते देख रहे हैं। जी हां, सजा सुनाने के तत्काल बाद अदालत ने आरोपियों को निजी मुचलके पर जमानत दे दी। कहां तो इन्हें फांसी दिए जाने की आशा की जा रही थी, किन्तु अदालती आदेश ने सभी को निराश कर दिया। लोग अदालत के इस फैसले से स्वाभाविक रूप से संतुष्ट नहीं हैं। लेकिन पूरे मामले का अध्ययन करने पर पता चलेगा कि दोषी अदालत नहीं है।
जी हां। यही सच है। दोष है अभियोजन पक्ष और सीबीआई का। वर्षों की जांच के बाद इन लोगों ने पूरे मामले को इतना हलका बना डाला कि अदालत और कुछ कर ही नहीं सकती थी। आरोपियों को जिस धारा 304-ए के तहत दोषी पाया गया। उसमें सजा का अधिकतम प्रावधान ही 2 साल है। यहां अभियोजन पक्ष की कमजोरी या लापरवाही स्पष्ट है। यह आश्चर्यकारक ही नहीं, संदेहास्पद भी है कि यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन के अध्यक्ष वारेन एंडरसन के खिलाफ अभियोजन पक्ष ठोस मामला बनाने में विफल रहा। गैस कांड के बाद एंडरसन गिरफ्तार किए गए थे। जमानत पर रिहा होन के बाद वे फरार हो गए। अभियोजन पक्ष उन्हें पुन: अदालत में पेश करने में कामयाब नहीं हो पाया। नतीजतन अदालत ने एंडरसन को भगोड़ा घोषित कर दिया था। क्या हमारी जांच एजेंसियां इतनी अशक्त हैं कि 15 हजार से अधिक लोगों की मौत के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार व्यक्ति को हथकड़ी नहीं पहना सकीं? उसके खिलाफ ठोस मामला नहीं बनाया जा सका? इस मुकाम पर उनकी नीयत पर संदेह उत्पन्न होना स्वाभाविक है। कहीं अमेरिका की कंपनी के चेयरमैन को जानबूझकर तो नहीं बख्श दिया गया? अगर ऐसा है तब इस कांड की जांच से जुड़े तमाम व्यक्तियों को 15 हजार लोगों की हत्या का सहयोगी घोषित कर दिया जाना चाहिए। सन् 2001 में अमेरिका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमले में लगभग 3000 लोगों के प्राण गए थे। भोपाल गैस कांड में इससे 5 गुना अधिक जानें गईं। अमेरिका की 9/11 की घटना के बाद की कार्रवाइयों को याद करें। अमेरिका ने आतंकियों के शरणस्थल अफगानिस्तान पर आक्रमण कर उसे तबाह कर डाला था। इतना कि आज भी अफगानिस्तान उस तबाही से उबर नहीं पाया है। लेकिन भारत के भोपाल में 15,000 से अधिक लोगों की मौत का मुख्य रूप से जिम्मेदार अमेरिकी स्वदेश वापस जा बेखौफ विचर रहा है। कुछ तार्किक अमेरिका व भोपाल की घटनाओं में फर्क दिखा सकते हैं। घटनाओं की प्रकृति में अंतर हो सकता है किन्तु लोगों के प्राणों में नहीं। मौत-मौत के बीच फर्क नहीं होता। आज जब भोपाल में गैस कांड के पीडि़त और वहां के तमाम लोग अदालत के फैसले से क्षुब्ध सड़क पर निकलने की तैयारी में हैं तब इसके संभावित दुष्परिणाम के लिए जिम्मेदार कौन होगा? अदालती फैसला चीख-चीख कर हमारी न्याय व्यवस्था में संशोधन की मांग कर रहा है। पहल हो और तत्काल हो। सजा की मूल अवधारणा ही अपराध की पुनरावृत्ति पर रोक से जुड़ी है। अगर भोपाल गैस त्रासदी जैसे फैसले आते रहे तब मौत के सौदागर भयभीत हों तो क्यों? न्याय व्यवस्था के खोखलेपन का फायदा वे उठाते ही रहेंगे।
5 comments:
यह संपूर्ण व्यवस्था का संकट है, यह पूंजीवादी व्यवस्था एक सक्षम और शीघ्र न्याय करने के लिए जरूरी न्यायिक व्यवस्था और कानून नहीं दे सकती।
dont mind.... jimmedar logo ki aatma lakwagrast ho gai hai... adalat kya kre... jo samne saboot honge usi pr nyay karegi...
द्विवेदी जी की बात में थो़ड़ा सा संशोधन-हमारे तरह की व्यवस्था...
यही व्यक्ति यदि घोर पूंजीवादी देश अमेरिका में होता तो साल-दो साल में ही कहानी निपट गयी होती..
वे नेता और अधिकारी भी सजा के पात्र हैं जिन्होंने केस को गड़बड़ाया और तेइस साल का समय भी..
यह न्यायवयवस्था समाजवादियों की दी हुई है.
न्यायपालिका के निर्णय पर उंगली उठाना सही नहीं है।
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