Tuesday, October 27, 2009
थैलीशाहों की थैलियों में कैद राजनीति?
तो क्या अब भारतीय राजनीति थैलीशाहों की बंदी बन कर रह जाएगी? संकेत- पुख्ता संकेत मिल रहे हैं इस संभावित अनिष्ट के। हाल ही में संपन्न महाराष्ट्र, हरियाणा और अरुणाचल प्रदेश विधानसभाओं के चुनावों में 284 करोड़पतियों की मौजूदगी इस आशंका की चुगली कर रही है। 288 सदस्यों वाली महाराष्ट्र विधानसभा में 184, 90 सदस्यों वाली हरियाणा विधानसभा में 65 और 60 सदस्यों वाली अरुणाचल विधानसभा में 35 करोड़पति चुन कर आए हैं। अर्थात इन सभाओं में आधे से अधिक सदस्य करोड़पति हैं। कैसे? क्या भारतीय समाज गरीबी की सीमा पार कर इतना अमीर हो गया है कि चारों ओर करोड़पति ही करोड़पति विद्यमान हैं? बिल्कुल नहीं। यह गलत है। भारत की बहुसंख्यक आबादी अभी भी गरीब है। कुछ तो इतने गरीब कि दो समय की रोटी का भी जुगाड़ नहीं कर पाते। हां, यह गरीब और गरीबी ही है जिनके उत्थान या विकास का लोकलुभावन नारा देकर राजनेता वोट जमा कर संसद और विधान भवनों में पहुंचते हैं। इस बिंदु पर मेरा भय कुछ और है। जिस संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली के नाम पर ये सब हो रहा है, उसमें से 'लोक' का गायब होना खतरनाक है। अगर यह स्थिति-प्रक्रिया जारी रही तब लोकतंत्र के भविष्य को लेकर अच्छा हो, हम अभी विलाप कर लें। दिखावे के लिए तब ये राजदल और राजनेता लोकतंत्र का झंडा फहराते अवश्य नजर आएंगे किन्तु व्यवहार के स्तर पर हर कोण से लोकतंत्र नदारद रहेगा। क्या देश इसके लिए तैयार है? आश्चर्य है कि लोकतंत्र की समाप्ति की दिशा में बढ़ते इस कदम की मौजूदगी के बावजूद सभी मौन हैं। विधायिका में पूंजीपतियों की संख्या के अनुपात में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई होती तो बात दूसरी होती लेकिन यहां वृद्धि हो रही है तो सिर्फ नेताओं की आय में। कैसे? कौन सा उद्योग धंधा चला रहे हैं ये? यह शोध का एक स्वतंत्र विषय है। इस प्रवृत्ति में वृद्धि एक दिन गरीबों के लिए राजनीति का दरवाजा बंद कर देगी। देश से गरीबी को समूल नष्ट कर दिए जाने के संकल्प के साथ आजाद भारत के कर्णधारों ने पूंजीवाद के मुकाबले समाजवाद की नीति अपनाई थी। कहां गया वह समाजवाद? एक तर्क दिया जाता है कि परिवर्तन की दौड़ में समाजवाद पीछे छूट गया है। लेकिन विश्व की दूसरी सबसे बड़ी और 100 करोड़ से अधिक आबादी वाले भारतीय समाज के लिए समाजवाद अप्रासंगिक नहीं हो सकता। पूंजीवाद को कभी स्थाई जमीन नहीं मिल सकती। यह हमारे समाज के लिए जरूरी है ही नहीं। गरीबी, अशिक्षा, चिकित्सकीय अभाव, विद्युत, पेयजल और आवास आदि के संकट से बेजार भारतीय समाज का नेतृत्व पूंजीवाद पोषक हाथों में कैसे सौंपा जा सकता है? 100 पूंजीपति घरानों की तिजोरियों में देश के भाग्य को कैद कर देने की इजाजत देने को हम तैयार नहीं हैं। पूंजीवाद के घोर विरोधी आधुनिक भारत के निर्माता महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू की आत्माएं आज सिसक रही होंगी। ऐसे भारत की कल्पना उन्होंने नहीं की होगी। बेचारा गरीब अगर अंगार की तरह अपने सीने पर अमीरों के हाथों रोटी सेंकता देखने को मजबूर रहेगा तो निश्चय जानिए यह अंगार समय आने पर दावानल में भी बदल सकता है। उसे हवा के सिर्फ एक झोंके की जरूरत है।
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3 comments:
हम अपने नेता ऐसे चाहते हैं जिनका अनुसरण कर सकें। आज सबको ही पैसे से प्यार है सो थैलीशाहों को चुनते हैं। राजनैतिक दलों को भी सुविधा है अब चुनावों में पैसे की समस्या नहीं आती। जब शक्ति की आवश्यकता होती है तो बाहुबली हैं उनके पास , जब पैसे की हो तो थैलीशाह हैं।
घुघूती बासूती
हम अकेली राजनीति की ही बात क्यों करें? क्या समाज में कोई गरीब प्रबुद्ध व्यक्ति प्रतिष्ठित होता है? धार्मिक स्थानों पर प्रतिष्ठा है? आज पैसे की चकाचौंध ने सारे ही समाज को दूषित कर दिया है। मैं एक श्रेष्ठ संस्था में सेवारत हूँ, लेकिन जब भी कोई कार्यक्रम करना होता है, स्थानीय लोग किसी पैसे वाले की ही तलाश करते हैं। मैं अक्सर कहती हूँ कि आप लोग यह कार्यक्रम स्वयं भी तो कर सकते हैं लेकिन वे हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा आए की कहावत पर चलकर पैसे वालों की ही गुलामी करते हैं। इसलिए सभी क्षेत्रों में ये ही दिखायी देते हैं। मझे तो लगता है कि कुछ दिनों बाद साहित्य में भी लिखेगा कौन और नाम किसी पैसे वाले का ही होगा। समाचार पत्रों के सम्पादकीय तो दूसरों से लिखाए ही जाते हैं।
थैलीशाह तो हि्न्दुस्तान की राजनीति पर आजादी के पहले ही सवार हो चुके थे। अब तो वे मजे में सवारी कर रहे हैं। अब जनता की वह राजनीति चाहिए जो इस थैलीशाही को उखाड़ फेंके। वह है भी पर बहुतों को दिखाई नहीं देती। तलाशिए और उस में शामिल होइए।
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