Monday, March 2, 2009
केपिटलिस्ट डॉग ऑफ मलाबार हिल?
बुरा तो अनेक लोगों को लगेगा, किन्तु उनकी नाराजगी की परवाह न करते हुए मैं प्रख्यात पत्रकार-चिन्तक एम.जे. अकबर की चुनौती में उनका बगलगीर होने को तैयार हूं. मुझे क्या, भारत की पूरी की पूरी आबादी को (एक वर्ग विशेष को छोड़ कर) अकबर की चुनौती का जवाब मिलने की प्रतीक्षा रहेगी. लेकिन परिणाम मैं अभी रेखांकित कर दूं कि किसी भी तथाकथित बुद्धिजीवी-रचनाकार-कलाकार, निर्माता-निर्देशक की हिम्मत नहीं होगी कि वह 'केपिटलिस्ट डॉग ऑफ मलाबार हिल' के नाम से फिल्म बनाए. अगर कभी सूर्योदय की दिशा बदल जाए और 'केपिटलिस्ट डॉग(अर्थात् पूंजीपति कुत्ता)' के नाम से फिल्म बन जाए तब निश्चय जानिए कि भारत एक सर्वाधिक प्रगतिशील देश बन 'विश्वगुरु' का दर्जा प्राप्त कर लेगा.
बहरहाल, यह निष्कर्ष एक ख्याली पुलाव की श्रेणी में मूक ही रहेगा. अकबर की चुनौती सिर्फ उनके दिल में उठ रहे उबाल की ही नहीं, बल्कि अब तक उपेक्षित उस वर्ग की तिलमिलाहट की अभिव्यक्ति भी है, जो धारावी (मुंबई) की झोपड़पट्टियों में पल रहे बच्चों को 'कुत्ता' कहे जाने से अपमानित होकर सिसक रही है. यह दबा-कुचला वर्ग क्रोध नहीं दिखा सकता. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हिमायती भी इन्हें 'जुबान' दिलाने में विफल रहे हैं. क्षमा करेंगे, यह वर्ग तो इन दिनों प्राय: प्रतिदिन समाचार पत्रों-पत्रिकाओं, टीवी चैनलों पर कलाकारी के साथ स्लमडॉग अर्थात् 'झोपड़पट्टी का कुत्ता' को निखार कर प्रफुल्लित हो रहा है. शर्मनाक है यह! भारत के एक झोपड़पट्टी इलाके में भूख-प्यास से बिलबिलाते बच्चों को कुत्ते के रूप में देश-विदेश के बाज़ारों में बेचने वाले पुरस्कृत किए जा रहे हैं, महिमा मंडित किए जा रहे हैं. विशेषण के कोष खाली कर इन्हें वाहवाही मिल रही हैं, तालियां मिल रही हैं. क्योंकि इन्होंने 'झोपड़पट्टी का कुत्ता' को अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में बेशकीमती बना कर बेच डाला है. यह भारत में ही संभव है. हमारे बुद्धिजीवी इसमें पारंगत हैं. हमारे रचनाकार विदेशी निर्माता-निर्देशक के बाज़ार में उनके सहयोगी बन मुदित हैं. हालांकि इनके लिए उपयुक्त शब्द तो 'दलाल' होता, किन्तु मैं अभी उन्हें संदेह का लाभ देते हुए मौका देने को तैयार हूं. उक्त फिल्म में किरदार निभाने वाले कलाकार, गीतकार, संगीतकार, गायक, तकनीशियन आदि यह भूल गए थे कि ये वही गोरी चमड़ी वाले विदेशी हैं, जो कभी भारत-भ्रमण के बहाने यहां आकर गरीबी को बेचने का व्यापार किया करते थे. मुंबई की चौपाटी पर गरीब-भूखे बच्चों द्वारा जूठे पत्तल चाटने के दृश्य फिल्मांकित कर पश्चिमी देशों में बेचने वाले यही लोग तो हैं. नंग-धड़ंग भिखारियों के बीच कुछ सिक्के फेंक उन पर झपटते गरीबों के दृश्यों को भी ये विदेशी व्यापारिक वस्तु के रूप में इस्तेमाल करते रहे थे. साधु-संतों के गले में सर्प का दृश्यांकन कर ये विदेशी, भारत को जाहिल और जादूगरों का देश निरूपित कर मानमर्दन किया करते थे. लेकिन बीच की कालावधि में भारत विकास की दौड़ में अग्रणी दिखने लगा, तो यह सिलसिला कुछ थम-सा गया था. पश्चिम ने भारत में एक बड़े बाज़ार की संभावना देखी. चतुर इन गोरों ने तब अपना पैंतरा बदला. नब्बे के दशक में अचानक इन्हें भारत खूबसूरत नजर आने लगा- भारत में खूबसूरती दिखने लगी. मिस वल्र्ड, मिस यूनिवर्स आदि सौंदर्य प्रतियोगिताओं में भारतीय बालाओं को अव्वल स्थान मिलने लगे. तब भी यह कहा गया था कि पश्चिम अपनी बाज़ारू संस्कृति के बाहुपाश में भारतीय खूबसूरती को इसलिए जकड़ रहा है कि अव्वल भारतीय संस्कृति को सामान्य बना बाज़ार में बिठा दिया जाए. महानगरों की चकाचौंध में जीवन व्यतीत करने वाला भारतीय आभिजात्य वर्ग पश्चिम के षडय़ंत्र में फंस गया. शासक भी इससे बच नहीं पाए. तब सगर्व घोषणाएं होने लगी थीं कि ये विश्व सुंदरियां वस्तुत: भारत की 'सांस्कृतिक दूत' हैं. कहां हैं वे बालाएं, सभी को मालूम है! फिल्मी दुनिया में 'नग्न संस्कृति' का प्रतीक बन ऐश कर रही हैं- भारतीय संस्कृति का दूत नहीं बन सकीं! 'स्लमडॉग' के जरिए पश्चिम ने अब भारतीयता के खिलाफ नया षडय़ंत्र रच डाला है. विदेशी ऐसा करें अपनी बला से. अकबर की तरह मेरी आपत्ति भी षडय़ंत्रकारियों की टोली में भारतीयों की भागीदारी को लेकर है. कोई फिल्म या कलाकार किसी भी मंच से पुरस्कृत होता है तो निश्चय ही यह गर्व की बात है, किन्तु भारत के गरीब बच्चों को 'कुत्ता' बना कर पेश किए जाने के कारण पुरस्कृत होता है, तो यह भारत और भारतीयता का अपमान है. इसी भावना को आगे बढ़ाते हुए अपने शब्दों के जरिए एम.जे. अकबर ने सवाल दागा है कि ''क्या कोई 'केपिटलिस्ट डॉग ऑफ मलाबार हिल' नाम से फिल्म बनाने की जुर्रत कर सकता है?'' अकबर के इस तमाचे से नागपुर का वसंतराव देशपांडे सभागृह स्तब्ध रह गया था. इसकी गूंज अगर मुंबई-दिल्ली पहुंच कर संबंधितों को आत्मनिरीक्षण करने के लिए प्रेरित करती है, तब मैं आश्वस्त हो इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता हूं कि 'स्लमडॉग' से उत्पन्न पीड़ा को नाश करने के लिए ही सही, 'केपिटलिस्ट डॉग ऑफ मलाबार हिल' बनाने वालों की एक बड़ी पंक्ति तैयार हो जाएगी. लेकिन भारत और भारतीयता का मर्दन कोई नहीं कर सकता!
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