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Saturday, March 21, 2009

लोकतंत्र का यह कैसा 'कुनैन'?


मराठा क्षत्रप शरद पवार के 'यू टर्न' की 'अंगूर खट्टे हैं' की तर्ज पर आलोचना नहीं की जानी चाहिए. यह ठीक है कि जब उन्हें प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल ही नहीं होना था, तब अब तक इतनी हायतौबा क्यों मचाते रहे. पवार को अपनी 'हैसियत' का ज्ञान अभी ही क्यों हुआ? संख्याबल की लघुता की जानकारी तो उन्हें पहले से थी. अब स्वयं तो बेइज्जत हुए ही, शिवसेना को भी ताड़ पर चढ़ा गिरने को मजबूर कर दिया. अब उद्धव ठाकरे अगर यह कहते हैं कि आईपीएल मैच करवाने वाला प्रधानमंत्री नहीं बन सकता, तब पवार को अपनी इस नई 'हैसियत' की भी जानकारी हो जानी चाहिए. भारतीय राजनीति के लिए, खासकर महाराष्ट्र की राजनीति के लिए यह चिंता का विषय है. उपलब्ध राष्ट्रीय नेताओं के बीच शरद पवार का कद हमेशा ऊंचा रहा है. उनकी राजनीतिक सूझ-बूझ और व्यापक ज्ञान को चुनौती कोई नहीं दे पाता. राष्ट्रीय स्तर पर उनकी सिर्फ पहचान ही नहीं, वे सर्व-स्वीकार्य भी हैं. इस पाश्र्व में स्वाभाविक प्रश्न यह पैदा होता है कि आखिर उन्होंने आरंभ में प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल होने की बात चलाई ही क्यों थी? एक राजनेता के रूप में ऐसी आकांक्षा रखना गलत कदापि नहीं है. शरद पवार ने पहल भी इसीलिए की थी. लेकिन अब अगर पवार दौड़ से बाहर होने की घोषणा करते हैं, तब निश्चय ही ऐसा उन्होंने मजबूरीवश किया होगा. यह भारतीय लोकतंत्र की जटिल राजनीतिक गुत्थियां हैं, जो योग्यता को हाशिए पर पहुंचा सिसकने को विवश कर देती हैं. जिस कथित 'संख्याबल' के सामने निरीह हो पवार ने समर्पण कर दिया है, उस संख्या का नियंत्रण आखिर कौन कर रहा है? वर्तमान सरकार की बागडोर किन हाथों में है? 545 सदस्यों वाली लोकसभा में मात्र 147 सदस्यों वाला कांग्रेस दल सरकार का नेतृत्व कर रहा है. साथ ही तीन सदस्यों के साथ लोकसभा में प्रविष्ट लोक जनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री बने बैठे हैं. जब स्वार्थ सिद्धि की बात आती है, तब सरकार के अन्य छोटे घटक दल ताल ठोंककर भयादोहन पर उतर आते हैं. महत्वपूर्ण व संवेदनशील राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर इन दलों के भयादोहन के समक्ष प्रधानमंत्री को नतमस्तक होते देखा गया है. बेबस प्रधानमंत्री तब राष्ट्रीय हित के साथ समझौते को मजबूर हो जाते हैं. यह भारतीय राजनीति और संसदीय लोकतंत्र का ऐसा विद्रुप पक्ष है, जिसकी सफाई के लिए राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए. देश को स्वार्थी सत्तालोलुपों के हाथों भयादोहन की अनुमति नहीं दी जा सकती. शरद पवार की विवशता में निहित संदेश पर गंभीरता से मनन हो. संख्याबल का अर्थ यह कदापि नहीं कि लोकसभा में 20-22 प्रतिशत सदस्यों वाले किसी दल के हाथों में देश का शासन छोड़ दिया जाए. ऐसा शासन जनता के साथ न्याय कर ही नहीं सकता. फिर इन्हें अनुमति कैसे दी जा सकती है? लोग तटस्थ न रहें, आगे बढ़ें- बहस करें और जरूरत पड़े, तब संविधान को बदल डालें. आखिर संविधान है भी तो जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा बनाया हुआ. फिर जनता जनहित में इसे बदल क्यों न डाले! स्वार्थी व भयादोहन करने वालों को संविधान का संरक्षण अनुचित है. यह दोहराना ही होगा कि नगण्य अपवाद को छोड़ दें तो आज कथित रूप से निर्वाचित अधिकांश जनप्रतिनिधि जनता व देश का नेतृत्व करने की पात्रता नहीं रखते. फिर इन्हें बदल डालने में विलंब व हिचक क्यों? पवार निराश न हों. अंतत: विजय जनशक्ति की ही होनी है. लोकतंत्र का वर्तमान कसैला 'कुनैन' कभी तो मीठा होगा!
21 मार्च 2009

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