Monday, March 9, 2009
मंदिर के 'देवी -देवता' राबड़ी-लालू!
यह भी खूब रही! जीते-जी स्वयं का पुतला बनवा माल्यार्पण करते देखने का शौक राजनेता पूरा करते रहे हैं. महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, बिहार, तमिलनाडु सहित अनेक राज्यों में आपको जीवित राजनेताओं की स्थापित की गई मूर्तियां देखने मिल जाएंगी. ऐसी मूर्तियों को देख लोग-बाग हंस तो लेते हैं, आश्चर्य प्रकट नहीं करते. हां, 'लालू-राबड़ी' इस मामले में दो कदम आगे बढ़ते हुए आश्चर्य की 'वस्तु' नहीं, चिन्तन का विषय भी मुहैया कराने जा रहे हैं. इस बार हंसी नहीं, गंभीर मनन की जरूरत उत्पन्न हुई है. खबर है कि बिहार में लालू-राबड़ी का मंदिर स्थापित किया जाने वाला है. अर्थात् देवी-देवताओं की तरह अब 'लालू-राबड़ी' भी मंदिर में पूजे जाएंगे. उनकी आरती-अर्चना होगी. फल-फू ल-प्रसाद चढेंग़े. पता नहीं, लालू-राबड़ी की सहमति इसके लिए है या नहीं, लेकिन जानकार पुष्टि करेंगे कि घोर ब्राह्मïण-विरोधी लालू हमेशा से पूजा-पाठ का मजाक उड़ाते रहे हैं. विशेषकर वैसे पूजन का, जिन्हें ब्राह्मïण पुजारी संपन्न करते हैं. फिर लालू ने मंदिर की ओर रुख क्यों किया? वह भी ऐन चुनावी माहौल में!
लालू आज केन्द्र की संप्रग सरकार में अपने दो दर्जन संासदों के बल पर एक प्रभावशाली मंत्री हैं. संख्या के गणित का महत्व समझ वे अपने मन की कर लेने और करवा लेने में सक्षम हैं. लालू इस सत्य से परिचित हैं कि आज अगर केन्द्र में उनकी हर इच्छा की पूर्ति कर दी जाती है, तो संसद में उन्हें प्राप्त संख्या बल के कारण ही. आसन्न आम चुनाव के परिणाम को लेकर लालू चिन्तित हैं, यह बात उनके नजदीकी जानते हैं. बिहार में लगभग 15 वर्षों तक राज करने वाले लालू निश्चित ही आज कमजोर हैं. भाजपा-जद (यू) गठबंधन की राज्य सरकार 'पुराने पापों' को धोते हुए विकास कार्यों को प्राथमिकता दे रही है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वहां हर वर्ग-क्षेत्र में एक कुशल, ईमानदार प्रशासक के रूप में स्थापित हो चुके हैं. समीक्षकों का अनुमान है कि भाजपा-जद (यू) गठबंधन लोकसभा की अधिकांश सीटों पर कब्जा कर लेगा. अर्थात् लालू-राबड़ी का राष्ट्रीय जनता दल हाशिये पर चला जाएगा.
उसी लालू-राबड़ी की मूर्तियों को अगर आज मंदिर में स्थापित करने की पहल की जा रही है, तो कारण की पड़ताल दिलचस्प होगी. कहीं ऐसा तो नहीं कि बिहारवासी अब उन्हें पत्थर बना स्थायी रूप से मंदिरों में कैद कर देना चाहते हैं! क्योंकि लालू-राबड़ी तो स्वयं को मंदिर में कैद करवाएंगे नहीं. उनकी कथित धर्मनिरपेक्ष छवि भी इसके खिलाफ चुगली कर रही है. लगता है लालू-राबड़ी संभावित चुनाव परिणाम की सोच-सोच कर विचलित होते जा रहे हैं. चूंकि सत्ता का मद उनके सिर चढ़ बोलने लगता है. भय यह भी है कि कहीं सत्ता के अंतिम दिनों में यह मद किसी 'दुर्घटना' को न जन्म दे दे. ठीक उसी तरह, जैसे 1995 में दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद किया था. तब एक पत्रकार ने उनका ध्यान बिहार की जनता द्वारा उनमें दोबारा विश्वास जताये जाने को आकृष्ट किया था. सुझाव दिया था कि अब वे बिहार के विकास की ओर ध्यान दें और देश में बिहार की 'छवि' सुधारने की ओर भी कदम उठायें. तब उनसे लोमहर्षक जवाब मिला था. लालू ने तब विकास के मुद्दे पर राज्य के अन्य पूर्व मुख्यमंत्रियों का नाम लेते हुए पत्रकार को याद दिलाया कि ''इन सभी ने विकास का नारा तो दिया था, किन्तु जनता ने इन्हें लात मार कर सत्ता से बाहर कर दिया था!'' छवि के सवाल पर उनका दो-टूक जवाब था- ''पूरे देश को ही नहीं, पूरे संसार को बिहार के नाम से खौफ खाने दीजिए. फायदा इसी का मिलेगा.'' निरुत्तर पत्रकार उन्हें देखता रह गया था. क्या लालू यादव मंदिर में स्थापित होकर अपने 1995 के मनोगत को मौन स्वीकृति प्रदान करना चाहते हैं? अगर हां, तब मुझे कुछ नहीं कहना. अगर ना, तब वे इस पहल का विरोध कर 'भगवान' की जगह मनुष्य ही बने रहें! मैंने कहा, मनुष्य.....!!
5 मार्च 2009
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