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Monday, March 16, 2009

बौना न बनें कद्दावर पवार ...!


अब चूंकि शरद पवार ने भी कह डाला कि कोई 'मराठी' प्रधानमंत्री बने, इस मुद्दे पर गंभीर चिन्तन तो होंगे ही. जब शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने 'मराठी माणूस' के पक्ष में पवार को प्रधानमंत्री बनाए जाने की वकालत की थी, तब उन्हें संकुचित-क्षेत्रीय मानसिकता का दोषी करार दिया गया था. भाजपा के कड़े रुख के बाद शिवसेना, प्रधानमंत्री पद के लिए 'मराठी माणूस' की अपनी मांग से पीछे हट गई. फिर अचानक पवार को क्या हो गया? यह तो तय है कि पवार की मांग किसी अन्य मराठी-भाषी के लिए नहीं, बल्कि स्वयं अपने लिए है. प्रधानमंत्री बनाए जाने की लालसा देश का कोई भी व्यक्ति पाल सकता है. भाषा, जाति, धर्म या क्षेत्र इसमें बाधक नहीं. शरद पवार जैसे कुशल राजनीतिक अगर प्रधानमंत्री बनने की लालसा रखते हैं, तब इस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती. उत्तरप्रदेश के मायावती-मुलायम यादव, तमिलनाडु के जयललिता-करुणानिधि, गुजरात के आडवाणी-मोदी, बिहार के लालू-नीतीश, मध्यप्रदेश के अर्जुन सिंह-दिग्विजय सिंह, आंध्रप्रदेश के चंद्राबाबू नायडू, कर्नाटक के देवेगौड़ा या फिर हरियाणा की सुषमा स्वराज प्रधानमंत्री बनने की इच्छा पालती हैं. तब भला इन्हें चुनौती कैसे दी जा सकती है? इस मुद्दे पर आपत्ति का बिन्दु 'मराठी' है. पवार आखिर 'क्षेत्रीय संकीर्णता' के कैदी कैसे बन गए?
एक बार इसी 'क्षेत्रीय संकीर्णता' का विफल प्रयोग पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी एक निजी इच्छा की पूर्ति के लिए किया था. बात 1957 के राष्ट्रपति चुनाव की है. पं. नेहरू चाहते थे कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद की जगह डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को राष्ट्रपति बनाया जाए. डॉ. प्रसाद का नाम दूसरी बार राष्ट्रपति पद के लिए सामने आया था. नेहरूजी ने दक्षिण के चारों राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिख कर ऐसी इच्छा जताई थी कि, ''इस बार कोई दक्षिण भारतीय राष्ट्रपति बनें.'' वस्तुत: उस पत्र के माध्यम से नेहरूजी ने राधाकृष्णन की वकालत की थी. वे चाहते थे कि दक्षिण के मुख्यमंत्री राधाकृष्णन के पक्ष में मांग उठाएं. लेकिन 'क्षेत्रीय संकीर्णता' से दूर चारों मुख्यमंत्रियों ने नेहरू को सपाट जवाब भेज दिया कि, ''जब तक राजेंद्र प्रसाद उपलब्ध हैं, राष्ट्रपति उन्हें ही बनाया जाए.'' स्पष्ट है कि दक्षिण के मुख्यमंत्रियों ने योग्यता को तरजीह दी- क्षेत्रीयता को नहीं. अर्थात् क्षेत्रीयता पराजित हुई, योग्यता की जीत हुई. डॉ. राजेंद्र प्रसाद दोबारा राष्ट्रपति बने.
बाल ठाकरे तो ऐलानिया तौर पर क्षेत्रीय, बल्कि मुंबई की राजनीति करते हैं- राष्ट्रीय राजनीतिक सरोकार से कोसों दूर हैं. अन्य समीक्षकों की तरह मैं भी पवार की मांग पर चकित हूं. कहीं वे पुराने इतिहास के पन्ने तो नहीं पलट रहे हैं? 70, 80 और 90 के दशक में पवार एक अस्थिर राजनीतिक और अपने नेता की खिलाफत के लिए जाने जाते थे. 1978 में उन्होंने महाराष्ट्र में वसंतदादा पाटिल के नेतृत्व वाली सरकार को गिराया था. दस्तावेजी सबूत मौजूद हैं कि तब अविश्वास प्रस्ताव के दौरान विधानसभा में उन्होंने वसंतदादा पाटिल की सरकार का बचाव किया था. किन्तु भाषण समाप्त करने के बाद वे राज्यपाल के पास गए और पाटिल सरकार से समर्थन वापस ले लिया. 1985 में तब कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अर्जुन सिंह, पवार को कांग्रेस में वापस ले आए थे. हालांकि तब प्रधानमंत्री राजीव गांधी, पवार के कांग्रेस में पुनप्र्रवेश को लेकर बहुत उत्साही नहीं थे. बाद में पवार, अर्जुन सिंह को 'खलनायक' के रूप में दिखने लगे!
90 के दशक में राजीव गांधी की मृत्यु के पश्चात पहले सोनिया के पक्ष में आवाज उठाने वाले पवार, अचानक 'विदेशी मूल' के मुद्दे पर सोनिया के खिलाफ विद्रोह कर बैठे- कांग्रेस का त्याग कर डाला. तब यह तथ्य उभर कर सामने आया था कि पवार स्वयं प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. पवार की तब की इच्छा को चुनौती नहीं दी जा सकती थी. 1999 का वह कालखंड घोर राजनीतिक अस्थिरता का था. पवार उसका राजनीतिक लाभ उठाना चाहते थे. लेकिन लोकसभा में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को स्पष्ट बहुमत मिल जाने से उनकी इच्छा धरी की धरी रह गई.
तो क्या राजनीतिक अस्थिरता के वर्तमान कालखंड में पवार पुन: अपना 'दांव' खेलना चाहते हैं! इसमें कुछ गलत नहीं है. अन्य दावेदारों की तरह पवार भी अपनी 'गोटी' खेलने के लिए स्वतंत्र हैं. इसमें आपत्तिजनक सिर्फ यही है कि उन्होंने राजनीति के छुटभैये खिलाडिय़ों की तरह 'क्षेत्रीयता' का पांसा फेंका है. यह गलत है. संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में बहुमत प्राप्त दल या गठबंधन का नेता ही प्रधानमंत्री बनता है, चाहे वह किसी भी भाषा-क्षेत्र का हो! कोई दल या व्यक्ति, भाषा या क्षेत्र के आधार पर प्रधानमंत्री पद के आरक्षण की मांग नहीं कर सकता! यह अनैतिक तो है ही, असंवैधानिक भी है. अपनी मांग रखते हुए शरद पवार यह कैसे भूल गए कि देश के राष्ट्रपति पद पर प्रतिभा पाटिल के रूप में एक 'मराठी' ही आसीन हैं. अगर बात क्षेत्रीयता की की जाए, तो क्या राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों पदों पर 'मराठी' व्यक्ति को राष्ट्रीय स्वीकृति मिलेगी? जवाब स्वयं पवार दे दें! कृपया अपने विशाल राजनीतिक कद को बौना न बनने दें!
15 मार्च 2009

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