Saturday, March 21, 2009
राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए राहुल खतरा कैसे?
क्या सचमुच राहुल गांधी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा हैं? भारतीय थलसेना के उप प्रधान रह चुके जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल जनरल एस.के. सिन्हा कुछ ऐसा ही मानते हैं. चूंकि इस 'खतरे' का एहसास जनरल सिन्हा जैसे कद्दावर व्यक्तित्व के धनी ने देश को कराया है, न तो इसे एक झटके में खारिज किया जा सकता है और न ही हल्के में लिया जा सकता है. याद दिला दूं कि ये वही जनरल सिन्हा हैं जो इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व में आपातकाल के दौरान सेना के खुफिया प्रमुख रह चुके थे. योग्यतम सेनाधिकारियों में से एक जनरल सिन्हा की उपेक्षा कर जब इंदिरा गांधी ने जनरल ए.एस. वैद्य को थलसेनाध्यक्ष बना दिया था, तब सिन्हा ने विरोध स्वरूप सेना से अवकाश ले लिया था. प्रसंगवश जब जनरल सिन्हा पश्चिमी कमांड के सेना प्रमुख थे, तब इन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर में सैनिक कार्रवाई से मना किया था. उन्होंने एक वैकल्पिक योजना श्रीमती गांधी को सौंपी थी. आरंभ में श्रीमती गांधी ने तो उसे स्वीकार कर लिया, लेकिन बाद में आपरेशन ब्ल्यू स्टार को अंजाम दे डाला. संत भिंडरावाले की मौत, सिख असंतोष और अंतत: श्रीमती गांधी की हत्या की दु:खद घटना से पूरा देश परिचित है. बाद में 1988 में वस्तुत: जनरल सिन्हा की उस वैकल्पिक योजना को ही मूर्त रूप देते हुए प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 'आपरेशन ब्लैक थंडर' के नाम से सफल अंजाम दिया था. वही जनरल सिन्हा आज राजीव पुत्र राहुल गांधी को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा निरूपित कर रहे हैं! सिन्हा असल में राहुल का विरोध 'वंश' के नाम पर कर रहे हैं- राहुल की अनुभवहीनता को आधार बना रहे हैं. वे नहीं चाहते कि एक निहायत अपरिपक्व राहुल के हाथों में देश के शासन की बागडोर सौंप दी जाए. 'वंशवाद ' को लेकर नेहरू -गांधी परिवार को हमेशा निशाने पर लिया जाता रहा है. लेकिन इतिहास गवाह है कि समय आने पर कांग्रेस और देश 'वंश व अनुभव' को भूल परिवार के वारिस को सत्ता सिंहासन पर बैठाने में नहीं हिचका है. स्वयं राजीव गांधी का उदाहरण सामने है. जब राजीव को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई थी, तब वे एक कनिष्ठ पायलट मात्र थे. राजनीति और प्रशासन से उनका कोई सरोकार नहीं था. लेकिन वे प्रधानमंत्री बने. यह दीगर है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी की हत्या से उत्पन्न सहानुभूति लहर के सहारे 1985 में उन्होंने कांग्रेस को विशाल बहुमत दिलाया था. लेकिन इसके बाद अगले आम चुनाव 1989 में उनके नेतृत्व में कांग्रेस को पराजय का मुंह देखना पड़ा था. फिर ऐसा क्या है कि यह देश वंश के मोह से मुक्त नहीं हो पा रहा है. सुख्यात पत्रकार और चिंतक एम.जे.अकबर की मानें तो कांग्रेसजन श्वेत चमड़ी और राहुल के गालों पर उभरने वाले 'डिंपल' के आकर्षण में बंध गए हैं. अगर देश के नेतृत्व के लिए ऐसी 'योग्यता' की जरूरत है, तब सचमुच मालिक ईश्वर ही है. हम बातें राहुल और राष्ट्रीय सुरक्षा की कर रहे थे. मैं समझता हूं कि जनरल सिन्हा ने राहुल की अनुभवहीनता के आधार पर ही ऐसी टिप्पणी की है. ऐसे में क्या यह बेहतर नहीं होगा कि राहुल पहले पर्याप्त अनुभव हासिल कर लें और तब नेतृत्व की सोचें. राहुल यह जान लें कि कांग्रेस दल को अभी भी देश में अभिभावक दल के रूप में मान्यता प्राप्त है. यह देश के बहुमत की सोच है. लेकिन यह 'सोच' इस बात की अनुमति कदापि नहीं देगी कि कोई अपरिपक्व, अनुभवहीन अभिभावक दल का अभिभावक बन बैठे. राहुल दीवार पर लिखी इस इबारत को हृदयस्थ कर लें. हां, जहां तक राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरे की बात है तो इससे कोई सहमत नहीं हो सकता.
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