Monday, March 9, 2009
रणजीत देशमुख का 'कांग्रेसी सच'!
'जूते साफ करने' जैसे मुहावरे का प्रयोग करने वाले रणजीत देशमुख, लगता है, 'आ बैल मुझे मार' वाली कहावत भूल गए हैं. वैसे उनकी हिम्मत की दाद देनी होगी. शेर के जबड़े में उंगली डाल दांत गिनने की कोशिश जो की है उन्होंने! अब एक बार फिर वे 'शहीद' हो जाते हैं, तब शोक में 'मर्सिया' पढऩे वालों की संख्या का अनुमान कठिन तो नहीं ही है. समझ में नहीं आता कि दो-दो बार महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष व मंत्री रह चुके देशमुख अब टोपी वाले पारंपरिक कांग्रेस या कांग्रेसी को कैसे ढूंढ़ रहे हैं! निष्ठा की परिवर्तित परिभाषा की जानकारी तो उन्हें होनी ही चाहिए. पूरी की पूरी कांग्रेस को चमचागीरी की शिकार बताने वाले देशमुख यह कैसे भूल गए कि 'आधुनिक कांग्रेस' की नींव ही इस परिपाटी पर खड़ी हुई है. कांग्रेस को 'विचारों से कमजोर' बता कर वे किसकी सहानुभूति या समर्थन करना चाहते हैं? वह समय तो कब का बीत गया जब नीति और सिद्धांत पर कांग्रेस कार्यसमिति की बैठकों में खुलकर चर्चाएं हुआ करती थीं. गंभीर - वैचारिक मंथन हुआ करते थे. असहमति के शब्दों को भी आदर मिला करता था. व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से इतर नेतृत्व पार्टीहित में अच्छे सुझावों-विचारों को सम्मान देता था. पुराने लोग या स्वाध्याय-प्रेमी आज भी याद करते हैं कि कैसे पं. जवाहरलाल नेहरू अपने प्रखर आलोचक महावीर त्यागी को ससम्मान आनंद भवन में चाय पर बुलाकर चर्चा करते थे. वह समय भी निकल गया, जब प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी ने विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को अपना सलाहकार बनाया था. हालांकि बाद में पार्टी में 'चमचागीरी संस्कृति' के जन्म का 'श्रेय' उन्हीं के खाते में दर्ज हुआ. रणजीत देशमुख अगर आज 'सच' को उगलना चाहते हैं, तब उन्हें इतिहास के उन पन्नों के साथ-साथ वर्तमान के कड़वे सच से पर्दा उठाने की कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना होगा. मैं देशमुख के इस आकलन के साथ हूं कि कांग्रेस के दिनोदिन कमजोर होते जाने का मुख्य कारण सिर्फ यही नहीं, किन्तु अशोभनीय संस्कृति भी है. जब नींव कमजोर हो तब 'गृह' में दरारों का पैदा होना स्वाभाविक है. कांग्रेस की नई संस्कृति के वर्तमान वाहक की पात्रता को स्वयं कांग्रेसी संदिग्ध बताते रहे हैं. भारत देश की अपनी एक महान परंपरा है कि वह राष्ट्र-निर्माताओं और इसके लिए कुर्बानी देने वालों को याद कर आदरांजलि देता है. भारतीय नेता, चाहें वे किसी भी दल के हों, इस परंपरा का निर्वाह करते रहे हैं. किन्तु इसके लिए इतिहास की जानकारी होना जरूरी है. इस कसौटी पर वर्तमान नेतृत्व को रणजीत देशमुख या उनके सदृश अन्य पुराने कांग्रेसी कितने अंक देंगे? वे उत्तर दें- उसके पूर्व एक उद्धरण पेश करना चाहूंगा. 1997-98 में कांग्रेस ने आजादी की पचासवीं वर्षगांठ के अवसर पर भगतसिंह के जन्मदिवस पर एक समारोह का आयोजन किया था. समारोह में सोनिया गांधी को आमंत्रित किया गया था कि वे भगतसिंह को पुष्पों से श्रद्धांजलि अर्पित करें. भगतसिंह-युग और जीवन पर बोलने के लिए उन्हें एक तैयार भाषण दे दिया गया था. सोनिया अंतिम क्षण में भाषण देने से मुकर गईं. आयोजक परेशान थे कि आखिर हुआ क्या! पता चला कि भाषण में हर जगह भगतसिंह का उल्लेख सरदार भगतसिंह के रूप में किया गया था. सोनिया ने भगतसिंह के जिस चित्र पर पुष्प अर्पित किए थे, उसमें भगतसिंह अपनी चिर-परिचित 'हैट' धारण किए हुए थे, सरदार की पगड़ी नहीं. सोनिया को तब लगा था कि उनके भाषण में किसी गलत व्यक्ति का नाम शामिल कर दिया गया है. रणजीत देशमुख दु:खी न हों!
कांगे्रस की जिन व्याधियों का उल्लेख कर वे अपनी पीड़ा व्यक्त कर रहे हैं, वे सभी सही तो हैं, किन्तु उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि समाधान प्रस्तुत करने वाले मस्तिष्क भी 'चमचागीरी संस्कृति' के प्रभाव में निष्क्रिय हो युके हैं. अब तो नेतृत्व के पास समस्या के साथ-साथ समाधान भी लेकर जाना होता है. कारण साफ है, नेतृत्व के पास समस्या-समाधान की क्षमता का अभाव है. और अभाव है समाधान संबंधी सकारात्मक सुझाव देने वाले सुपात्रों का. ऐसे में क्या आश्चर्य कि नेतृत्व के दरबार में 'जूते साफ करने वालों' को महत्व मिले! रणजीत देशमुख का मैं अभिनंदन करना चाहूंगा कि खतरे की परवाह किए बगैर उन्होंने 'सच' बोलने की हिम्मत दिखाई है. लेकिन ऐसे साहसिक कदम अगर टिके रहे, तब अंत में वे अकेले नहीं दिखेंगे. क्या रणजीत देशमुख अपने पांवों को अंत तक टिके रहने के लिए 'नैतिक मजबूती' प्रदान करने को तैयार हैं?
3 मार्च 2009
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