Monday, March 30, 2009
दादी की राह पर ही तो चले वरुण...!
....'गिरफ्तारी का नाटक', 'सरेन्डर का ड्रामा', 'वरुण का बाण' आदि शीर्षक न्यूज चैनलों के परदे पर शनिवार दिन भर चलते रहे. लगभग सभी चैनलों के एंकर चीख-चीख कर अपने दर्शकों को यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि पीलीभीत में इंदिरा गांधी के पोते और संजय गांधी के पुत्र वरुण गांधी का 'सरेन्डर' वस्तुत: एक ड्रामा था, नाटक था. आम चुनाव में लोगों की सहानुभूति अर्जित करने के लिए ड्रामे का मंचन किया गया था. लेकिन यह किसी ने बताने की कोशिश नहीं की कि प्रचार का ड्रामा तो यह था, किन्तु वरुण ने नया कुछ नहीं किया. वह तो अपनी दादी मां इंदिरा गांधी की राह पर चले थे. सन् 1979 में जनता पार्टी शासनकाल के दौरान एक मामले में जब पुलिस इंदिरा गांधी को गिरफ्तार करने उनके आवास पर गई, तब वहां ड्रामा ही रचा गया था. पहले तो पुलिस से गिरफ्तारी का वारंट मांगा गया, फिर तैयार होने के लिए कुछ समय. पुलिस ने अनुमति दे दी. इस बीच फोन कर मीडिया और कांग्रेस समर्थकों को बुला लिया गया. इंदिरा गांधी अपनी गिरफ्तारी का पूरा प्रचार चाहती थीं- लोगों की सहानुभूति प्राप्त करना चाहती थीं.
आज़ाद भारत के इतिहास में यह पहला अवसर था, जब किसी पूर्व प्रधानमंत्री, वह भी नेहरू-गांधी परिवार की इंदिरा गांधी को पुलिस गिरफ्तार कर रही थी. इंदिरा के आवास पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं और मीडिया का जमावड़ा हो गया. तब इंदिरा गांधी अंदर अपने कमरे से 'तैयार' हो गिरफ्तारी देने बाहर निकली थीं. खूब हो-हंगामा हुआ था वहां. इंदिरा के पक्ष में जिंदाबाद और जनता पार्टी सरकार के खिलाफ मुर्दाबाद के नारे लगाए गए थे. 'नाटक' का पटाक्षेप वहीं नहीं हुआ. जेल जाते समय रास्ते में इंदिरा गांधी गाड़ी रुकवा सड़क किनारे पुलिया पर बैठ गयी थीं. वहां भी चीखने-चिल्लाने का एक पूरा अध्याय मंचित किया गया था. परेशान पुलिस अधिकारी हाथ जोड़ रहे थे. फिर इंदिरा जेल गई थीं एक दिन के लिए. इंदिरा एक पूर्व प्रधानमंत्री थीं, कांग्रेस की अध्यक्ष थीं, जवाहरलाल नेहरू की बेटी थीं. उस कद्दावर व्यक्तित्व के सामने पोता होने के बावजूद वरुण गांधी तो बहुत छोटे हैं. उन्होंने वही किया, जो नेहरू-गांधी परिवार से उन्होंने सीखा. इसमें कोई दो राय नहीं कि पीलीभीत में कोर्ट के सामने उनका 'सरेन्डर' प्रचार और सहानुभूति पाने के लिए था.
यह भारतीय लोकतंत्र का एक दु:खद पहलू है. आज़ादी-प्राप्ति के 60 वर्षों बाद भी लोकतंत्र के मंच पर 'गंभीरता' की जगह भौंडापन! इस पर वरुण नहीं, भाजपा-कांग्रेस सहित अन्य दलों के वरिष्ठ नेतागण चिन्तन-मनन करें. चूंकि वरुण के पीलीभीत प्रकरण की बुनियाद साम्प्रदायिक है, स्वीकार नहीं किया जा सकता. वरुण तो नाटक के एक पात्र मात्र हैं. उनके कंधे पर बंदूक रख गोली चलाने वाले हाथ तो कोई और हैं. ये हाथ किसी बच्चे के तो हो नहीं सकते. कोई लाख इनकार करे, लेकिन सच यही है कि वरुण को सामने कर सिर्फ उत्तरप्रदेश ही नहीं, देश भर में साम्प्रदायिक आग प्रज्वलित करने की कोशिश की गयी है. इस हेतु धर्मनिरपेक्ष नेहरू-गांधी परिवार के वरुण गांधी का चयन एक दूरगामी सोच की परिणति है.
सोनिया गांधी तो स्वयं नहीं बोल रहीं, लेकिन प्रियंका और राहुल की प्रतिक्रियाएं उनकी सोच के रूप में ही सामने आई हैं. भारतीय राजनीति के लिए यह एक अत्यंत ही खतरनाक घटना विकास क्रम है. इसे हल्के से न लिया जाए. हालांकि वरुण ने इनकार किया है, किन्तु जो शब्द उनके मुंह से निकले बताए जा रहे हैं, वे साम्प्रदायिकता की चिन्गारी को दावानल में बदलने के लिए पर्याप्त हैं. देश-विभाजन के पक्ष में पं. जवाहरलाल नेहरू ने तब भरे दिल से टिप्पणी की थी कि, ''सिर काट कर हम सिरदर्द से छुटकारा पा लेंगे!'' इस पाश्र्व में वरुण गांधी का नया 'अवतार' चौंकाने वाला है. कम से कम इस नए खतरनाक मुद्दे पर दलीय प्रतिबद्धता त्याग कर तो सभी दल एक मंच पर आ जाएं!
29 मार्च 2009
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