Tuesday, March 17, 2009
'छोटी मछली' से भयभीत 'बड़ी मछलियां'....!
एक बात समझ से परे है. अगर नव-उदित तीसरा मोर्चा वाहियात है, इनकी बैठकें सिर्फ फोटो खिंचवाने तक सीमित हैं तब देश की दोनों बड़ी पार्टियां बेचैन क्यों हैं? पहले कांगे्रस की ओर से मोर्चे को 'सर्कस' बताया गया और अब भारतीय जनता पार्टी इसे निरर्थक बता रही है. साफ है कि दोनों पार्टियां मोर्चे के जन्म से भयभीत हैं. भाजपा की ओर से पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष वेंकैया नायडू ने तो तीसरे मोर्चे को 'असहमतियों का मंच' करार दिया है. अब मैं यहां यह याद दिला कर समय और स्थान बर्बाद नहीं करना चाहूंगा कि उनकी राष्ट्रीय पार्टी में कब-कब और कितनी गंभीर असहमतियां उभर कर सामने आ चुकी हैं. देश की जनता को पुरानी-नई ऐसी अनेक घटनाओं की जानकारी है. नायडू की इस बात से पूरी तरह कोई भी सहमत नहीं हो सकता कि सिर्फ कोई राष्ट्रीय दल ही स्थायी सरकार दे सकता है. सिर्फ ऐसी सरकार ही भविष्य में देश के समक्ष उत्पन्न होने वाली चुनौतियों का सामना कर सकती है. कांग्रेस की हर नीति, हर कदम का विरोध करने वाली भाजपा जब 'तीसरे मोर्चे' के मुद्दे पर एक दिख रही है, तब कहीं न कहीं दाल में काला है अवश्य! कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत रूपी महासागर में ये दोनों 'बड़ी मछलियां ' किसी 'तीसरी' का आधिपत्य नहीं चाहतीं! इन दोनों 'बड़ी मछलियों' (कांग्रेस-भाजपा) को 'छोटी मछलियां' निगल जाने की आदत जो पड़ चुकी है.
राज्यों की बात छोड़ मैं केंद्र की बात करना चाहूंगा. क्या 1977 में कांग्रेस को चुनाव में धूल चटा सत्ता से बाहर कर देने वाली जनता पार्टी के साथ कांग्रेस ने राजनीतिक अनैतिकता का खेल नहीं खेला था? जनता पार्टी से तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री चौधरी चरणसिंह को मुठ्ठी भर सांसदों के साथ अलग करवा उन्हें प्रधानमंत्री की शपथ किसने दिलवायी?- कांग्रेस ने ही तो! फिर, इसके पहले कि चौधरी सदन में विश्वासमत हासिल करते, उनसे कांग्रेस ने समर्थन वापस क्यों ले लिया था? साफ है कि कांग्रेस तब तक चौधरी का 'उपयोग' कर चुकी थी!
और अब दूसरी राष्ट्रीय पार्टी भाजपा को भी तौल लिया जाए. 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को समर्थन देने वाली भारतीय जनता पार्टी ने 1990 में सरकार से समर्थन वापस क्यों ले लिया था? क्या सिर्फ इसलिए नहीं कि आरक्षण के पक्ष में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर विश्वनाथ प्रताप सिंह राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत जनाधार बना रहे थे. भाजपा ने उनकी सरकार को समर्थन वापस ले गिरा दिया तो सिर्फ इसलिए कि कोई तीसरी शक्ति मजबूती से भारतीय राजनीति में पांव नहीं जमा सके. आज वेंकैया नायडू ने राष्ट्रीय सत्ता-संचालन के लिए कांग्रेस के साथ भाजपा को योग्यतम ठहरा कर पूरी की पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था का अपमान किया है.
लगभग छह साल तक छोटे-छोटे करीब दो दर्जन दलों के सहयोग से देश पर शासन कर चुकी भाजपा की तरफ से तीसरे मोर्चे की खिल्ली उड़ाना उचित नहीं. देश की परिपक्वजनता निर्णय लेने में सक्षम है. भाजपा या कांग्रेस जनता की समझ को कम कर आंकने की कोशिश न करे. सच तो यह है कि चुनाव पश्चात सरकार गठन के लिए इन दोनों राष्ट्रीय दल के नेतागण तीसरे मोर्चे के सामने गिड़गिड़ाते नजर आएंगे- मोर्चे के नेतृत्व के सामने या फिर घटक दलों के नेताओं के सामने- अलग-अलग! तब शायद भाजपा-कांग्रेस के नेता बिल्कुल बेशर्मों की तरह आज उगले अपने शब्दों को पुन: निगल जाएंगे!
17 मार्च 2009
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