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Tuesday, March 10, 2009

शाबास देवबंद! 'इस्तेमाल' न हों मुस्लिम!!


शाबास दारूल उलूम देवबंद! मुसलमानों के लिए 'धर्म के आधार पर वोट नहीं' का फतवा जारी कर उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की राष्ट्रीय परिभाषा को मोटी रेखा से चिह्निïत कर दिया है. हर भारतीय यही चाह रहा था. यह एक सुखद संयोग है कि देवबंद ने यह फतवा उसी दिन जारी किया, जिस दिन जमात-ए-उलेमा-इन के नेता महमूद मदनी ने पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति को फटकार लगाई कि भारतीय मुस्लिमों को उनकी सलाह की जरूरत नहीं है. भारतीय मुसलमान अपनी समस्याएं हल करने में सक्षम हैं. देवबंद ने बिल्कुल सही, इसे विस्तार देते हुए फतवे में कह दिया है कि भारत लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश है, इसलिए यहां की पार्टी और नेताओं को इस्लामी नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए. जिस प्रकार आजादी के बाद से मुस्लिम आबादी को विभिन्न राजनीतिक दल 'मुस्लिम वोट बैंक' के रूप में निरूपित करते रहे हैं, उनका इस्तेमाल किया जाता रहा है, वह घोर अलोकतांत्रिक और धर्म की मूल भावना के विपरीत है. 'इस्तेमाल' किए जाते रहे ये- हिन्दुओं द्वारा भी, मुसलमानों द्वारा भी. दु:खद रूप से तब मुस्लिम संगठन व मुस्लिम नेता किन्हीं कारणों से ऐसे 'इस्तेमाल' के भागीदार बनते रहे. ऐसा नहीं होना चाहिए था. वह 'राजनीतिक स्वार्थ' ही है जिसने षडय़ंत्र रच कर सुनिश्चित किया कि मुसलमान हमेशा 'अल्पसंख्यक' बने रहें. यह गलत है. राष्ट्रीयता के खिलाफ है. 'दलित' की तरह 'अल्पसंख्यक' का संबोधन भी अपमानजनक है. संख्या बल के आधार पर देश की आबादी का धार्मिक विभाजन लोकतंत्र के माथे पर कलंक का टीका है. देवबंद के ताजे फतवे से यह संकेत तो मिल गया कि मुसलमानों ने अपने खिलाफ रचे गए षडय़ंत्र को पहचान लिया है. क्या यह अब कोई रहस्य है कि हिन्दू-मुसलमानों के रक्त से 'आजादी' की इबारत लिखने वालों ने ही 'अल्पसंख्यक मुस्लिम वोट बैंक' का इस्तेमाल अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए किया? आज की पीढ़ी इस 'इस्तेमाल' से बेचैन है. इस पीढ़ी के बचपन ने स्कूलों में एक ही 'टिफिन बॉक्स' से हिन्दू-मुसलमान हाथों को एक साथ भोजन करते देखा है. कोई भेदभाव नहीं. वह हक्का-बक्का है दोनों समुदायों के बीच राजनीतिक विभाजन रेखा को देखकर. 1947 के देश विभाजन के इतिहास से परिचित यह पीढ़ी बार-बार पूछती है कि आखिर कब तक अंग्रेजों के 'फूट डालो, राज करो' की नीति का रोना रोते रहेंगे? यह नहीं भूला जाना चाहिए कि फूट डालो और शासन करो की ब्रिटिश शासन प्रणाली के फलस्वरूप गुलाम अविभाजित भारत में एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी, जिसमें एक ही विकल्प रह गया था कि या तो शांति और कानून बनाए रखने के लिए ब्रिटेन की हुकूमत चलती रहे या सारा देश रक्तस्नान करने लगे. देश ने तब रक्तस्नान का सामना करने का विकल्प चुना था. आज मुझे खुशी है कि देवबंद के माध्यम से मुस्लिम भाइयों ने धार्मिक कट्टरता के लबादे को उतारने का निर्णय लिया है. वैसे, मुस्लिम समुदाय का भ्रम तो बहुत पहले ही टूट चुका है. सत्ता के लिए इनका वोट पाने की जद्दोजहद में राजदल और नेता लुभावने वादे तो करते रहे, किंतु यह भी सुनिश्चित किया कि समाज में इनको स्थान दोयम दर्जे का मिले और ये हमेशा याचक बने रहें. आजादी के 60 साल बाद भी विभिन्न क्षेत्रों में इनके प्रतिनिधित्व का अनुपात गवाह है इनकी उपेक्षा का, इनके प्रति अविश्वास का. और यह सब इनके कथित अल्पसंख्यक स्वरूप से ही संभव हुआ. फेंक दें इस 'अल्पसंख्यक' तमगे को. राष्ट्रीय मुख्यधारा के साथ कदमताल करते हुए आगे बढ़ें. याचक की जगह दाता बनें. फतवे के अनुसार वोट डालते समय धर्म व संप्रदाय की कुंठा का त्याग कर समाज व राष्ट्रहित में हितकारी पात्रों के पक्ष में मतदान करें- चाहे वह पात्र हिन्दू, सिख, सिंधी, ईसाई या अन्य किसी धर्म-जाति का ही क्यों न हो. विश्वास से ही विश्वास पैदा होता है. मुस्लिम समुदाय द्वारा ईमानदारीपूर्वक की गई ऐसी पहल से कुचक्र निर्मित अविश्वास का घड़ा चूर-चूर हो जाएगा. उसमें संरक्षित सांप्रदायिकता के गरल को जगह सिर्फ पनाले में मिलेगी.
10 मार्च 2009

3 comments:

अक्षत विचार said...

सचमुच ही देवबंद ने चुनावों से पहले अच्छी पहल की है। आपको होली की बहुत सी शुभकामनायें...

अनुनाद सिंह said...

सही विचारा है आपने! देश के आम जनता की समस्याएं ही मुसलमानों की समस्याएं भी हैं। किन्तु मुद्दों से ध्यान हटाकर कभी उर्दू का, कभी मदरसों का, कभी अल्पसंख्यक आयोग का, कभी अल्पसंख्यक वित्त निगम का 'झुनझुना' थमाकर उनकी भे।दचाल को वोटबैंक में बदला जाता रहा है।

रंजना said...

अतिशय प्रसन्नता हुई यह जानकर....सचमुच ऐसे प्रयासों की मुक्त कंठ से प्रशंशा की जानी चाहिए....ईश्वर सदा इन्हें सद्बुद्धि दें,ताकि ये सही गलत का अंतर जान सकें...
पता नहीं गणना कैसे की जाती है कि इनकी संख्या सरकारी आंकडों में इतनी कम निकलती है,कि सरकार को आज भी इन्हें अल्पसंख्यक ही कहना पड़ रहा है. जबकि वास्तविकता यह है कि आज देश में अल्पसंख्यक मुस्लिम सम्प्रदाय नहीं बल्कि अन्य कई धर्मावलम्बी व सम्प्रदाय हैं.पूरी आबादी का लगभग 35% प्रतिशत का यह समुदाय यदि रूढीमुक्त हो अपने को गन्दी राजनीति करने वालों के हाथों इस्तेमाल होने से बचाकर उन्नति के मार्ग पर चल निकलेगा तो अंततः आर्थिक,सामाजिक और राजनितिक रूप से देश बहुत अधिक सशक्त होगा तथा सही अर्थों में देश धर्मनिरपेक्ष हो पायेगा.....