Wednesday, March 25, 2009
प्रियंका पहले स्वयं गीता पढ़ लें !
वरुण गांधी को गीता पढऩे की सलाह देने वाली प्रियंका वाड्रा क्या यह बताएंगी कि उन्होंने गीता कब और कितनी पढ़ी है? गीता का सार क्या है? मैं इस निष्कर्ष के लिए मजबूर हूं कि प्रियंका ने या तो गीता नहीं पढ़ी है या वे जान-बूझ कर वरुण के संबंध में गीता का उल्लेख कर रही हैं. आश्चर्यजनक रूप से प्रियंका ने वरुण को सीख देने का आधार उस भाषण को बनाया है, जिसे वरुण अपना मानते ही नहीं. कभी वरुण को राहुल से ज्यादा प्यार करने वाली प्रियंका उसके शब्दों पर अब विश्वास क्यों नहीं कर रहीं? साफ है कि यह सब नेहरू-गांधी परिवार के उत्तराधिकारी के रूप में राहुल गांधी और सिर्फ राहुल गांधी को स्थापित करने की कवायद है. जबकि वरुण गांधी को नेहरू-गांधी परिवार के उत्तराधिकार पर दावा करने का उतना ही हक है, जितना राहुल गांधी को!
नेहरू परिवार में सत्ता-संघर्ष की अंतर्कथा का एक अंश है ताजा विवाद. वैसे इसकी नींव बहुत पहले ही पड़ चुकी थी. यह एक विडंबना ही है कि प्रियंका ने वरुण की आलोचना के लिए गीता का सहारा लिया है. पहले प्रियंका गीता के सार पर गौर करें- 'अपना कर्म करो, फल की आशा मत करो' और यह कि 'जब-जब धर्म की हानि होती है, धर्म के रक्षार्थ ईश्वर किसी महापुरुष के रूप में अवतरित होते रहे हैं.' क्या प्रियंका को यह बताने की जरूरत है कि गीता में भगवान कृष्ण जब धर्म की बात करते हैं तो किस धर्म की! आज जब वरुण यह कहते हैं कि वे नेहरू हैं, भारतीय हैं और हिन्दू हैं, तब उन्हें गलत कैसे ठहराया जा सकता है?
यदि बात सत्ता-संघर्ष की ही की जाए, तब एक बार फिर गीता का उल्लेख कर लें. महाभारत में जब एक ही परिवार के योद्धा हथियारबंद खड़े हुए, तब विचलित अर्जुन को क्या कृष्ण ने यह नहीं कहा था कि ''युद्ध में सब कुछ जायज है! और युद्ध के मैदान में कोई रिश्तेदार नहीं होता, सभी योद्धा होते हैं!'' क्या प्रियंका इन सब बातों की याद वरुण को दिलाना चाहेंगी? विडंबना यह भी कि प्रियंका आज जिस मेनका-पुत्र वरुण की आलोचना कर रही हैं, कांग्रेस की ओर से वरुण की गिरफ्तारी की मांग की जा रही है, 1977 में जब इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर कर दी गई थीं, जनता सरकार उन पर लगातार आक्रमण कर रही थी तो वही मेनका अकेली ही नेहरू परिवार के लिए ढाल बन कर सामने खड़ी हुई थीं. परिवार के हितों की प्रबल रक्षक के रूप में तब मेनका की छवि उभरी थी. उन्होंने 'सूर्या' पत्रिका के द्वारा इंदिरा विरोधियों पर लगातार हमले किए. 'सूर्या' ने तब इंदिरा के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले लोगों के अनेक कांडों का भंडाफोड़ किया. सोनिया और राजीव तो तब राजनीति से ही घृणा करते थे. प्रियंका आज जिस अंगूठी को धारण करती हैं, वह अंगूठी भी वस्तुत: वरुण की मां मेनका गांधी की ही है! अपनी मां कमला नेहरू की इस अंगूठी को इंदिरा ने मेनका को दिया था.
सच तो यह है कि सन् 2000 में 20 वर्षीय वरुण तब सोनिया और प्रियंका की आंखों में खटक गए थे, जब उन्होंने राजनीति के संबंध में बातें करनी शुरू कर दी थीं. सीताराम केसरी ने तो मृत्यु शैया से वरुण को 'सच्चा गांधी' करार दिया था. केसरी ने आगे कहा था, ''हो सकता है मैं यहां न रहूं, परंतु यह बच्चा राजनीति में नाम कमाएगा. वह एक स्कॉलर है और नेहरू के बाद नेहरू-गांधी परिवार का पहला स्नातक है.''
वैसे प्रियंका का कहना है कि ''राहुल कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से एम.फिल. कर चुके हैं.'' यह बहस का मुद्दा हो सकता है. किंतु इस पर कोई बहस नहीं कि नेहरू-गांधी परिवार की दो शाखाओं के बीच कटुता आज चरम पर पहुंच चुकी है. मेनका-पुत्र वरुण अपनी राजनीतिक भूमिका में जिस गति से महत्व प्राप्त करने लगे हैं, वह सोनिया-प्रियंका-राहुल को बर्दाश्त नहीं! परंतु वे चाहें जितनी भी कोशिश कर लें, वरुण को रोक पाना आसान नहीं होगा. नेहरू-गांधी परिवार का अंतहीन संघर्ष भले अपनी जगह कायम रहे, किंतु भारत का जनमानस प्रियंका-राहुल और वरुण को अलग कर नहीं देखता. तीनों गांधियों को लोग पैदाइशी नेता मानते हैं, जिनमें चमत्कार करने की क्षमता है. वरुण में भाजपा की रुचि इसी कारण पैदा हुई थी.
प्रियंका राहुल को नेहरू परिवार का असली वारिस बताने के अभियान में जुटी हैं. लेकिन आज की नई युवा पीढ़ी को सिर्फ 'एक उत्तराधिकारी' नहीं चाहिए. उसे एक 'योग्य नेतृत्व' चाहिए- हर तरह से सक्षम, ईमानदार और आक्रामक! वरुण को गीता अध्ययन करने का सुझाव देने वाली प्रियंका भी इस तथ्य से अज्छी तरह परिचित नहीं होंगी. चूंकि वरुण बगैर किसी 'पारिवारिक' समर्थन के अपना रास्ता स्वयं तैयार कर रहे हैं, उन्हें रोकने की कोशिश नहीं होनी चाहिए. अगर कभी महाभारत की तरह राहुल-वरुण आमने-सामने हो जाएं, तब यह देखना दिलचस्प होगा कि दोनों के सारथी कौन बनते हैं? फैसला इसी बात पर निर्भर रहेगा.
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6 comments:
गांधी परिवार के आपसी अंतर्द्वंद्व का आपने सटीक विश्लेषण किया है। हालांकि, वरूण के दो भाषणों के प्रसारित अंशों को आधार पर मैं वरूण का समर्थन नहीं कर सकता, लेकिन क्या कांग्रेस प्रायोजित 1984 के जघन्य सिख विरोधी दंगों के लिए प्रियंका भी माता-भ्राता सहित माफी मांगने को तैयार हैं? क्या अपने पिता की उस समय की गई (
1984 दंगों के समय) यह टिप्पणी- जब कोई बड़ा दरख्त गिरता है, तो आसपास की जमीन डोलती है- प्रियंका को याद है? अगर हां, तो इसके लिए उनमें माफी मांगने का साहस है? कम से कम अभी तक तो ये साहस नहीं ही दिखा है। ऐसे में वरूण को गीता पढ़ने का उपदेश उन्हें शोभा नहीं देता।
हा हा हा मैं भी यही सोच रही थी।
आजकल जबकि सारे पत्रकार कौआ कान लेगया सुनकर कौये के पीछे भागकर हुआं हुआं करने लगे हैं, आपका विश्लेषण पढ़ना बहुत अच्छा, लगता है
आपका विश्लेषण पढना बहुत अच्छा लगा . धन्यवाद. .
अति उत्तम तरीके से आपने तीखी टिप्पड़ी की है ।
वाह वाह।
~जयंत
यदि वरुण उस संबोधन को अपना नहीं मानते तो बाल ठाकरे को धन्यवाद किस बात का दे रहे हैं ?
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