कुलदीप नैयर तब अंग्रेजी दैनिक द स्टेट्समैन के निवासी संपादक थे। इंदिरा गांधी सेंट्रल सिटिजंस कमेटी की सभापति थीं। माना जाता था कि दोनों अच्छे मित्र हैं। राजनीति, सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोरंजन आदि से लेकर व्यक्तिगत पसंद-नापसंद की चर्चाएं भी दोनों किया करते थे। एक दिन इंदिरा गांधी ने अपने लंबे, खूबसूरत बालों को कटवा डाला। कुलदीप नैयर से उन्होंने हंसते हुए पूछा कि नई हेयर स्टाइल उनके व्यक्तित्व के साथ मेल खाती है या नहीं? यह उदाहरण है एक सरल चित्त, निश्चल मित्रता की। लेकिन इसके आगे? 25 जुलाई 1975 को आपातकाल के दौरान कुलदीप नैयर गिरफ्तार कर जेल में बंद कर दिए जाते हैं। नैयर तब इंडियन एक्सप्रेस के संपादक थे। नैयर का अपराध यह था कि उन्होंने प्रेस सेंसरशिप के खिलाफ टिप्पणी करते हुए लिखा था कि आदेश अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संबंधी संवैधानिक अधिकार के खिलाफ है और लोकतांत्रिक नियमों के विरुद्ध भी। यह उदाहरण है मित्रता में कपट का और लोकतंत्र के साथ छल का। ऐसा किया था इंदिरा गांधी ने।
'झूठ के बोझ तले सिसकता सच' शीर्षक के अंतर्गत की गई मेरी टिप्पणी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पत्रकार मित्र कमल शर्मा (मुंबई) ने इच्छा प्रकट की है कि आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी व इंडियन एक्सप्रेस की भूमिका आदि पर प्रकाश डालें। प्रसंग विगत 31 अक्टूबर को इंडियन एक्सप्रेस में उसके प्रधान संपादक शेखर गुप्ता का प्रकाशित आलेख का है। गुप्ता ने इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल को तीन खंडों में विभक्त कर उन्हें महिमामंडित किया है। द्वितीय कालखंड से उन्होंने देश पर आपातकाल थोपने, जनता से संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार छीन लेने, जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चंद्रशेखर जैसे दिग्गज नेताओं और कुलदीप नैयर सरीखे पत्रकार सहित हजारों लोगों को गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिए जाने की घटना को गायब कर दिया है। कुछ पंक्तियों में सिर्फ यह लिखा है कि इंदिरा ने आपातकाल समाप्त कर राजनीतिक बंदियों की रिहाई कर दी और नया आम चुनाव करवाकर एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि वे नेहरू की लायक बेटी हैं। शेखर गुप्ता के इस प्रयास पर उनके प्रशंसक भी आश्चर्यचकित हैं। प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी की उल्लेखनीय-अतुलनीय उपलब्धियां अपनी जगह मौजूद हैं। लेकिन 'नेहरू की लायक बेटी' पर बहसें होंगी। ऊपर मैंने अपमानित मित्रता और राजनीतिक छल के उदाहरण दिए हैं। अब थोड़ा आगे बढ़ें। वह इंदिरा गांधी ही तो थीं जिन्होंने बगैर मंत्रिमंडल की मंजूरी लिए तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को आधी रात में आपातकाल की घोषणा पर दस्तखत करने को मजबूर किया। वह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ही तो थीं जिन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अपने खिलाफ दिए गए आदेश को 'कम वेतन पाने वाले एक छोटे जज का आदेश' निरूपित कर मानने से इंकार कर दिया था। वह इंदिरा गांधी ही थीं जिन्होंने न्यायपालिका का मानमर्दन किया था। सर्वोच्च न्यायालय के तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों जस्टिस ए.एन. ग्रोवर, जस्टिस जे.एम. शेलट और जस्टिस के.एस. हेगड़े के दावों की अनदेखी कर वरीयताक्रम में उनसे कनिष्ठ जस्टिस ए.एन. रे को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया था। न्यायपालिका को दबाने की वह शुरुआत थी। अपराधी इंदिरा गांधी थीं। लोकतंत्र में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कुचलने के अपराधी को क्या कहेंगे? शेखर गुप्ता अपने लेख में इस प्रसंग को भी गोल कर गए। सन 1982 में युवा विधवा बहू मेनका गांधी और एक साल के पोते वरुण गांधी को घर से निकाल बाहर करने वालीं इंदिरा गांधी को भारतीय संस्कृति, मूल्य, नैतिकता और संवेदनशीलता की कसौटी पर 'शून्यांक' ही मिला था। क्या ऐसा व्यक्तित्व समाज व देश का अनुकरणीय बन सकता है? शेखर गुप्ता इस मुद्दे पर भी मौन रहे।
जब कांग्रेस कार्यसमिति ने राष्ट्रपति पद के लिए इंदिरा गांधी की पसंद वी.वी. गिरी को उम्मीदवार बनाने से इंकार कर दिया था। तब इंदिरा बैठक से बाहर निकलते हुए दरवाजे पर रुक पीछे मुड़ीं और अपने से वरिष्ठ सभी नेताओं को उंगली दिखाकर चेतावनी दी थी कि 'मैं देख लूंगी।' इंदिरा का वह आचरण हर कसौटी पर लोकतांत्रिक भावना और पद्धति के खिलाफ था। अर्थात तब इंदिरा गांधी अलोकतांत्रिक आचरण और तानाशाही प्रवृत्ति की अपराधी बनी थीं। अब एक उदाहरण इंडियन एक्सप्रेस के मालिक (स्व. रामनाथ गोयनका) का। बात उन दिनों की है जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। इंडियन एक्सप्रेस के गुरुमूर्ति एवं एक अन्य पत्रकार कुछ मामलों में गिरफ्तार कर लिए गए थे। रिहाई के बाद जब दोनों नई दिल्ली के सुंदरनगर स्थित गोयनका के गेस्ट हाउस में उनसे मिलने पहुंचे। गोयनका तपाक से खड़े हुए और दोनों के कंधे पर हाथ रखकर पूछा, 'तुम लोग डर तो नहीं गए... डरने की कोई बात नहीं... जब वह '....' इंदिरा गांधी कुछ नहीं कर पाई तब यह '...' राजीव क्या कर लेगा... मैं '....' कर दूंगा, उसमें यह बह जाएगा।' ऐसे निडर मालिक थे रामनाथ गोयनका। अपने कर्मचारियों की पीठ पर हाथ रख उन्हें निडरता का पाठ पढ़ाने वाले गोयनका की आत्मा निश्चय ही आज रो रही होगी। शेखर गुप्ता शायद इस घटना को भी भूल गए हैं। वे यह जान लें कि इंडियन एक्सप्रेस की पहचान एक स्वतंत्र-निडर समाचार पत्र के रूप में थी। एक ऐसे निडर समाचार पत्र के रूप में जिसने कभी किसी दबाव या प्रलोभन के आगे झुकना नहीं सीखा था। 31 अक्टूबर 2009 को इसकी भी चर्चा किसी ने नहीं की। लोग जानना चाहते हैं, क्यों? मैं पहले बता चुका हूं कि आज के अधिकांश कथित प्रभावशाली मीडिया कर्मियों की दृष्टि और लक्ष्य सिद्धांत और मूल्यों की रक्षा न होकर सत्ता सुख प्राप्त करना रह गया है। शेखर गुप्ता के प्रसंग में इंडियन एक्सप्रेस के ही एक पूर्व संपादक से मेरी बात हुई। मेरी जिज्ञासा पर उन्होंने अत्यंत ही दुखी मन से बताया कि 'इंडियन एक्सप्रेस अब वह इंडियन एक्सप्रेस नहीं रह गया है.... आज संपादकों का लक्ष्य राज्यसभा के लिए मनोनीत होना भर रह गया है।'
मैं यहां स्पष्ट कर दूं कि मेरी टिप्पणियां पूर्वाग्रही नहीं, निष्पक्ष हैं। इंदिरा गांधी की राजनीति और उनके व्यक्तिगत जीवन के कुछ पहलू उद्धृत करने का मेरा उद्देश्य यही है कि नई पीढ़ी को इतिहास और सच की जानकारी रहे। ताकि वे सच-झूठ और न्याय-अन्याय की विवेचना स्वयं कर सकें।
6 comments:
सर , आप ने आपातकाल में इंदिरा जी की भूमिका पर काफी वास्तविक प्रकाश डाला है |
सत्ता और संस्थान विरोधी स्वर आपातकाल के बाद से लेकर आजतक किन - किन मीडिया घरानों में मुखर रहा है ? कृपया इस पर भी अपने अनुभव साझा करें |
धन्यवाद |
विनोद जी, आपकी खरी बात कहने का मैं कायल हूँ. इंदिरा जी की भारत के लिए उपलब्धियां कम नहीं हैं और सच कहें तो वह भारत की अंतिम "रीढ़ की हड्डी" वाली प्रधानमंत्री थीं............परन्तु सत्ता के लिए तंत्र के प्रत्येक अवयव में अवमूल्यन का प्रारंभ उन्होंने ही किया. यह अवमूल्यन आज क्षय रोग के रूप में सारे तंत्र में फैल चुका है और इसके बैक्टीरिया को इस तंत्र में प्रवेश करने वाली इंदिरा ही थीं जिसके लिए उन्हें माफ़ नहीं किया जा सकता.
व्यक्ति पूजा राजनीति की प्राण-वायु है जो सच पर एक रंगीन गुबार डालकर इतिहास को विकृत कर देती है. इतिहास को उसके सच्चे रूप में -फिर वह चाहे विकृत ही क्यों न हो-सामने लाने का आपका यह कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण और सराहनीय है. कृपया इसे जारी रखें क्योंकि नई पीढी को सच्चाई से रूबरू कराना उतना ही जरूरी है जितना कि सच का सच होना.........
नेहरू की लायक नहीं, नालायक बेटी थी!
अपनी और अपने परिवार की सत्ता बरकरार रखने के लिए इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र का गला घोटा। तानाशाह बन आपातकाल के दौरान आम जनता से उनके मौलिक अधिकार छिन लिए थे। न्यायपालिका की स्वतंत्रता छिन उसका मानमर्दन किया। प्रेस को प्रताडि़त कर उसे रेंगने के लिए मजबूर किया। अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए फिरोज गांधी जैसे पति को छोड़ दिया। अपनी जवान विधवा बहू और दुधमुंहे पोते को घर से निकाल दिया। शेखर गुप्ता इन तथ्यों से अनजान कैसे है? इंदिरा गांधी पंडित नेहरू की लायक नहीं, नालायक बेटी थी!
- अनामिका दास
एक बार रूसी करंनिया ने लिखा था कि रामनाथ गोयनका ने नौकरी के लिए उनका इंटरव्यू तेल के टब में लेटे लेटे बाथरूम में लिया था... इसे भी पत्रकारिता से, न जाने, जोड़ कर देखा जाना चाहिये या नहीं.
करंनिया=करंजिया
behtar hota ramnath goyanka se juda koi patrkaar likhta.kuldeep naiyar ,arun shouri aur prabhash joshi abhi
jinda hai.
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