'दैनिक 1857' के दिनांक 7 नवंबर के अंक में आलोक तोमर के दैनिक स्तंभ में प्रकाशित आलेख
गुरुवार की रात और रातों जैसी नहीं थी। इस रात जो हुआ उसके बाद आने वाली कोई भी रात अब वैसे नहीं हो पाएगी। रात एक बजे के कुछ बाद फोन बजा और दूसरी ओर से एक मित्र ने कहा, बल्कि पूछा कि प्रभाष जी के बारे में पता है। आम तौर पर इस तरह के सवाल रात के इतनी देर में जिस मकसद से किए जाते हैं वह जाहिर होता है। मित्र ने कहा कि प्रभाष जी को दिल का दौरा पड़ा और वे नहीं रहे।
काफी देर तो यह बात मन में समाने में लग गई कि प्रभाष जी अतीत हो गए हैं। अभी तीन दिन पहले तो उन्हें स्टूडियो में बुलाने के लिए फोन किया था तो पता चला था कि वे पटना जा रहे हैं- जसवंत सिंह की किताब का उर्दू संस्करण लोकार्पित करने। पटना से वे कार से वाराणसी आए और कृष्णमूर्ति फाउंडेशन में रूके। वहां से हमारे मित्र और मूलत: वाराणसी वासी हेमंत शर्मा को फोन किया और कहा कि गेस्ट हाउस में अच्छा नहीं लग रहा। हेमंत ने गाड़ी भेज कर उन्हेंं घर बुला लिया। घर पर उन्हें इतना अच्छा लगा कि एक दिन और रूक गए। इसके बाद लखनऊ मे गोष्ठी थी। हिंद स्वराज को ले कर उसमें भी गोविंदाचार्य के साथ कार से गए। वहां से जहाज से दिल्ली लौटे थे और बहुत थके हुए थे।
मेरे गुरु प्रभाष जोशी क्रिकेट के दीवाने थे। इतने दीवाने की क्रिकेट के महापंडित भी कहते थे कि अगर पेशेवर क्रिकेट खेलते तो भारत की टीम तक जरूर पहुंच जाते। क्रिकेट का कोई महत्वपूर्ण मैच चल रहा हो तो प्रभाष जोशी को फोन करना अपनी आफत बुलाने जैसा था। गुरुवार की रात भी क्रिकेट का मैच ही था और भारत आस्ट्रेलिया से सीरीज छीनने के लिए खेल रहा था। सचिन तेंदुलकर ने वनडे क्रिकेटमें 17000 रन का रिकॉर्ड बना लिया था और प्रभाष जी उत्साहित थे मगर तभी विकेट गिरने शुरू हो गए और भारत हार की ओर बढऩे लगा। प्रभाष जी बेचैन हुए। ब्लड प्रेशर की गोली खाई। टीम हार गई तो बेचैनी और बढ़ी और आखिरकार और दवाई लेने से भी लाभ नहीं हुआ तो बेटा संदीप उन्हें पास में गाजियाबाद के नरेंद्र देव अस्पताल में ले गया। मगर वहां तक पहुंचते पहुंचते काया शांत हो चुकी थी। प्रभाष जी के प्रिय कुमार गंधर्व के गाए निगुर्णी भजन से शब्द उधार लें तो हंस अकेला उड़ गया था। प्रभाष जी के सारे प्रिय जन एक-एक कर के संसार से जा रहे थे और प्रभाष जी हर बार उन पर रूला देने वाला लेख लिखते थे। सिर्फ एक बार रामनाथ गोयनका के निधन पर उनका लेख नहीं आया और जब पूछा तो उन्होंने कहा कि मेरे मन में अब तक समाया नहीं हैं कि आरएमजी नहीं रहे। उनके हर लेख में एक तरह का आत्मधिक्कार होता था कि सब जा रहे हैं तो मैं क्यों जिंदा हूं। बार बार यह पढ़ कर जब आपत्ति का एक पत्र लिखा तो उन्होंने बाकायदा कागद कारे नाम के अपने कॉलम में इसका जवाब दिया और कहा कि राजेंद्र माथुर, राहुल बारपुते, शरद जोशी, कुमार गंधर्व और सगे छोटे भाई की मौत में मुझे अपना एक हिस्सा मरता दिखता है और जो प्रतीत होता है वही मैं लिखता हूं। प्रभाष जी के कई चेहरे थे। एक क्रिकेट को भीतर से बाहर से जानने वाला और कपिल देव को देवीलाल से पहली बार दो लाख रुपए का इनाम दिलवाने वाला, कपिल, सचिन, अजहर, गावस्कर, बिशन सिंह बेदी से दोस्ती के बावजूद रणजी और काउंटी खेल चुके बेटे संदीप को भारत की टीम में शामिल करने की सिफारिश नहीं करने वाला, एक्सप्रेस समूह की प्रधान संपादकी ठुकरा कर जनसत्ता निकालने वाला, जनसत्ता को समकालीन पत्रकारिता का चमत्कार बना देने वाला, सरोकारों के लिए लडऩे वाला, अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी से दोस्ती के बावजूद उनकी धर्म ध्वजा छीनने वाला, कुमार गंधर्व के भजनों में डूबने वाला, अपने हाथ से दाल बाफले बना कर दावत देने वाला, पूरे देश में घूम कर पत्रकारिता में आई खोटों के खिलाफ अलख जगाने वाला, जय प्रकाश आंदोलन में शामिल होने वाला और उसके भी पहले बिनोवा भावे के भूदान आंदोलन में घूम-घूम कर रिपोर्टिंग करने वाला, हाई स्कूल के बाद पढ़ाई बंद करने के बावजूद लंदन के एक बड़े अखबार में काम करने वाला, धोती कुर्ता से ले कर तीन पीस का सूट पहन कर खाटी ब्रिटिश उच्चारण में अंग्रेजी और शुद्व संस्कृत में गीता के श्लोक समझाने वाला, प्रधान संपादक होते हुए डेस्क पर सब एडिटर बन कर बैठ जाने वाला, अनवरत यात्रा करने वाला, एक्सप्रेस समूह के मालिक को पत्रकारिता की आचार संहिता याद दिलाने वाला और सबसे अलग घर परिवार वाला एक चेहरा जिसमें यह भी शामिल है कि मेरे लिए लड़की मांगने लड़की वालोंं के घर वे पत्नी के साथ मिठाई का डिब्बा ले कर खुद पहुंचे थे।
प्रभाष जी के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है और बहुत कुछ खुद उन्होंने लिखा है। लेकिन आदि सत्य यह है कि हिंदी पत्रकारिता के ऋ षि कुल के वे आखिरी संपादक थे। संपादक और सफल संपादक अब भी हैं मगर अब प्रभाष जोशी कोई नहीं है। प्रभाष जी की मां अभी हैं और कल्पना कर के कलेजा दहलता है कि अपने यशस्वी बेटे की देह को वे देखेंगी तो कैसा लगेगा? याद आता है कि कागद कारे कॉलम कभी स्थगित नहीं हुआ। याद यह भी आता है कि बांबे हास्पिटल में ऑपरेशन के बाद प्रभाष जी इंटेसिव केयर यूनिट से बाहर आए थे और डॉक्टरों के लाख विरोध के बावजूद बोल कर मुझसे अपना कॉलम लिखवाया था। उस कॉलम में उन्होंने निराला की पंक्ति लिखवाई थी- अभी न होगा मेरा अंत। आज वह पंक्ति याद आ रही है। प्रभाष जी का जाना एक युग का अवसान है। एक ऐसा युग जहां सरोकार पहले आते थे और बाकी सब बाद में। उनके सिखाए पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी हैं और बड़े बड़े पदों पर बैठी हंै। उनमें से ज्यादातर को प्रभाष जी के दीक्षा में मिले संस्कार और सरोकार याद हैं। तिहत्तर साल की उम्र बहुत होती है लेकिन बहुत ज्यादा भी नहीं होती। प्रभाष जी कहते थे कि वे गांधीवाद पर एक किताब लिखना चाहते हैं और एक और किताब भारत की समकालीन राजनीति के विरोधाभासों पर लिखना चाहते हैं। काल ने उन्हें इसका अवसर नहीं दिया। लिखना प्रभाष जी का शौक नहीं था। शानदार हिंदी और शानदार अंग्रेजी लिखने वाले प्रभाष जी ने सरोकारों की पत्रकारिता की और कई बार ऐसा भी हुआ कि सरोकार आगे चले गए और पत्रकारिता पीछे रह गई। जनसत्ता के प्रभाव के कम होने की एक वजह यह भी थी कि प्रभाष जोशी का ज्यादातर समय विश्वनाथ प्रताप सिंह की तथाकथित गैर कांग्रेसी सरकार बनाने में लग रहा था और वे कभी देवीलाल तो कभी चंद्रशेखर तो कभी अटल बिहारी वाजपेयी को साधने में जुटे हुए थे। प्रभाष जी जैसा अब कोई नहीं है। ईश्वर करे कि मेरा यह विश्वास गलत हो कि उन जैसा कोई और नहीं होगा। लेकिन प्रभाष जोशी बनने के लिए कलेजा चाहिए। घर फूंक कर निकलने की हिम्मत चाहिए। जो सच है उस पर अड़े रहने की जिद चाहिए। इससे भी बड़ी बात यह है कि प्रभाष जी ने हिंदी पत्रकारिता को भाषा के जो संस्कार दिए, एक नया व्याकरण दिया और सबसे आगे बढ़ कर पत्रकारिता की प्रतिष्ठा से कोई समझौता नहीं होने दिया। वैसा करने वाला फिलहाल कोई नजर नहीं आता। बहुत पहले प्रभाष जी के साठ साल पूरे होने पर राहुल देव और मैंने एक किताब संपादित की थी और उसके आखिरी वाक्य से यहां विराम देना चाहूंगा। मैंने लिखा था कि प्रभाष जी समुद्र थे और उन्होंने खुल कर रत्न बांटे मगर मैं ही अंजूरी बटोर कर उन्हें समेट नहीं पाया।
1 comment:
mai 3 din se yahi dhundh raha tha ki alok tomar ji ne kya likha unke nidhan par, aur sabse badi bat yah ki kaise likha hoga, kis manahsthiti me likha hoga.........
shraddhanjali un shikhar purush ko.
unka chale jana bhartiya patrakarita ke liye aisi kshati hai jiski bharpani ho pana bahut bahut mushkil hai
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