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Saturday, November 21, 2009

शिवसेना-मनसे पर तुरंत प्रतिबंध लगाएं!

गुंडा किसे कहते हैं? जिसने लोक-लाज का त्याग कर दिया, गुंडा बन गया! अर्थात, जो बेशर्म हो गया, वही गुंडा है। फिर राज्यसभा सदस्य व सामना के कार्यकारी संपादक संजय राउत ने यह कैसे कह दिया कि 'आई. बी. एन.-लोकमत टी.वी. चैनल के कार्यालय पर हमला, मीडिया पर हमला नहीं है बल्कि इस बात का ऐलान है कि बाल ठाकरे का अपमान बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।' निश्चय ही यह बेशर्मी की इंतिहा है। लोग 'शिवसेना-संस्कृति' की बातें करते हैं। राज ठाकरे भी इसी संस्कृति की एक पौध हैं। इनकी हरकतों को ऐलानिया गुंडागर्दी निरूपित किया जाता रहा है। इस कथित संस्कृति को गुंडागर्दी का पर्याय मानते हैं लोग। ऐसे में संजय राउत को किस श्रेणी में रखा जाए? अभी दो दिन पूर्व ही मैंने लिखा था कि मीडिया में राज ठाकरे को पीछे छोड़ आगे जगह पाने के लिए शिवसेना के प्रमुख बाल ठाकरे ने सचिन तेंदुलकर को छेड़ा था। अपेक्षानुरूप राष्ट्रव्यापी आलोचना हुई। मीडिया में तेंदुलकर के साथ-साथ शिवसेना और बाल ठाकरे भी छाये रहे। शिवसैनिक प्रसन्न थे कि मीडिया ने उनका संज्ञान किया। फिर भला इसे सफलता मानने वाले शिवसैनिक आगे क्यों नहीं बढ़ते? धावा बोल दिया आई.बी.एन. 18 और गु्रप के मराठी चैनल आई.बी.एन.-लोकमत के दफ्तर पर। तोडफ़ोड़ की। मारपीट की। कानून-व्यवस्था को चुनौती देते हुए दिनदहाड़े सरासर गुंडागर्दी पर उतर आये शिवसैनिकों को अपनी इस बेशर्मी पर कोई अफसोस नहीं। संजय राउत ने हमलों की जिम्मेदारी लेते हुए फिर चुनौती दे डाली कि वे कभी बाल ठाकरे का अपमान बर्दाश्त नहीं करेंगे। क्या सच दिखाने और सच लिखने से किसी का अपमान होता है? 'शिवसेना-संस्कृति' वाले पत्रकार संजय राउत इस बात को नहीं समझ सकते। मुझे चिंता राउत की नहीं, चिंता इस बात की है कि आखिर मुंबई पर शासन किसका चल रहा है? कानून का शासन वहां लागू क्यों नहीं हो पाता? ताजा हमले के बाद मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने दोषियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की घोषणा करते हुए कहा कि हमला महाराष्ट्र की संस्कृति के खिलाफ है। अगर, मुख्यमंत्री ऐसा मानते हैं तो क्या वे अब बताएंगे कि महाराष्ट्र की संस्कृति को रौंदने वाली शिवसेना-संस्कृति को बर्दाश्त क्यों किया जाता रहा है? चाहे बाल ठाकरे के गुंडे हों या राज ठाकरे के, ये जब चाहते हैं उपहास उड़ाते हुए कानून-व्यवस्था के साथ बलात्कार कर जाते हैं। आज तक इनके खिलाफ कौन सी कड़ी कार्रवाई हुई है? हो-हल्ला होने पर कुछ थानों में इनके खिलाफ मामला दर्ज कर खानापूर्ति भर ही तो होता आया है आज तक। पिछले वर्ष मुंबई के तत्कालीन संयुक्त आयुक्त के.एल. प्रसाद ने जब राज ठाकरे के खिलाफ कार्रवाई की बात की थी तब उनके साथ क्या हुआ? राज ठाकरे ने सार्वजनिक रूप से उन्हें चुनौती दे डाली थी कि वे वर्दी उतार सड़क पर निकलें, उन्हें उनकी औकात बता दी जायगी। पुलिस प्रशासन को खुलेआम चुनौती देने वाले राज ठाकरे के खिलाफ कार्रवाई करने की जगह सत्ता की ओर से प्रसाद की ही खिंचाई की गई थी। फिर ठाकरे एवं कंपनी की हिम्मत क्यों न बढ़े? शुक्रवार को टी.वी. चैनल आई.बी.एन. 18 नेटवर्क के दफ्तर पर हमले की घटना पर फिर आश्चर्य क्यों? उनके गुंडे तो आश्वस्त हैं कि अंतत: उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पायेगा। अब सवाल यह कि इन गुंडों का क्या किया जाए? क्या इन्हें गुंडागर्दी की छूट दे दी जाए? अगर ऐसा होता है तब ऐलानिया यह घोषणा कर दी जाए कि मुंबई में कानून का शासन नहीं, गुंडों का शासन चलता है। वहां जंगल राज है। क्या राज्य सरकार इसे स्वीकार करेगी? जाहिर है नहीं। फिर चुनौती है उसे कि वह देश को यह विश्वास दिलाने के लिए कि मुंबई में भी कानून का शासन है, अपना दम-खम दिखाए और मुख्यमंत्री की घोषणा के अनुरूप छोटे-बड़े का भेदभाव न करते हुए दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा मिले, यह सुनिश्चित करे। किंतु शिवसेना और ठाकरे एंड कंपनी के इतिहास को देखते हुए ऐसा कदम नाकाफी होगा। उनके खिलाफ और सख्त कदम उठाए जाने की जरूरत है। लोकतंत्र पर हमला करने वालों को लोकतंत्र में उपलब्ध अधिकारों से वंचित क्यों न कर दिया जाए? यह एक मीडिया पर हमला नहीं है, जनता की आवाज को दबाने की साजिश है यह। ऐसे में उचित तो यही होगा कि कानूनी कार्रवाई करते हुए शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। लोकतंत्र के नाम पर समाज में विचरने का उन्हें कोई अधिकार नहीं। और हां! उचित यह भी होगा कि मीडिया भी इन लोगों का बहिष्कार कर दे। जब मीडिया ने यह मान ही लिया है कि वे गुंडे हैं, तब फिर इनके साथ व्यवहार भी एक गुंडे की तरह ही होना चाहिए। हीरो की तरह उन्हें दिखाने या लिखकर प्रचारित करने से मीडिया बाज आए। शासन की ओर से किसी गंभीर दंडात्मक कार्रवाई की आशा मीडिया न करे। वे तो अंतत: राजनीति का घिनौना खेल ही खेलेंगे। बेहतर हो मीडिया संकल्प लेकर ठाकरे एंड कंपनी का संपूर्ण बहिष्कार कर दे। निश्चय मानिए, टी.वी. पर्दों और अखबारों से महरूम होकर यह स्वत: राजनीतिक मरहूम बन जाएंगे।

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