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Monday, November 30, 2009

बहस हो कि सांप्रदायिक कौन!

न्यायमूर्ति मनमोहन सिंह लिबरहान के पूर्वाग्रह को कभी इंदिरा गांधी के राजनीतिक सलाहकार रह चुके कांग्रेस के वरिष्ठ नेता माखनलाल फोतेदार ने मोटी रेखा से चिह्नित कर दिया है। लिबरहान ने बाबरी मस्जिद विध्वंस पर अपनी जांच रिपोर्ट में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव को क्लीन चिट देते हुए टिप्पणी की है कि नरसिंह राव के पास उत्तर प्रदेश सरकार से गुजारिश करने के सिवा कोई चारा नहीं था। बगैर मांगे न्यायमूर्ति लिबरहान ने राव की ओर से ऐसी सफाई दे डाली है। लिबरहान जानते थे कि ऐसे सवाल उठेंगे कि उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार को पहले बर्खास्त क्यों नहीं किया गया। संविधान का सहारा लेते हुए स्वयं न्यायमूर्ति लिबरहान ने तकनीकी जवाब दे दिया कि बगैर राज्यपाल की अनुशंसा के केंद्र सरकार कोई कार्रवाई नहीं कर सकती थी। आयोग के इस निष्कर्ष के औचित्य पर राष्ट्रीय बहस छिड़ी हुई है। इस बीच माखनलाल फोतेदार ने यह जानकारी देकर कि स्वयं प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने तत्कालीन राज्यपाल सत्यनारायण रेड्डी को कह रखा था कि बगैर उनसे पूछे राज्य सरकार के खिलाफ कोई रिपोर्ट नहीं भेजना, एक बड़ा विस्फोट किया है। बात यहीं खत्म नहीं होती। फोतेदार के अनुसार यह बात उन्हें किसी और ने नहीं बल्कि तत्कालीन राष्ट्रपति डाक्टर शंकरदयाल शर्मा ने बताई थी। लिबरहान आयोग की रिपोर्ट पर जारी बहस-विवाद के बीच इस नई जानकारी ने कांग्रेस को कटघरे में खड़ा कर दिया है। फोतेदार के शब्दों पर अविश्वास का कोई कारण नहीं है। क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि हिंदू शक्तियों के साथ तब की कांग्रेसी सरकार भी बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए जिम्मेवार थी? माक्र्सवादी वृंदा करात ने तो यह भी जड़ दिया कि कांग्रेस सांप्रदायिकता के खिलाफ नर्म रुख रखती है। इस घटना विकासक्रम के बाद दो अहम् सवाल खड़े हो गए। पहला तो यह कि राज्यपाल कब तक केंद्र सरकार के इशारे पर नाचने को मजबूर रहेंगे। दूसरा यह कि देश में आखिर कब तक सांप्रदायिकता की कबड्डी खेली जाती रहेगी। क्या यह दोहराने की जरूरत है कि जब तक राजनीतिक (पालिटीशियन) और चापलूस नौकरशाह राज्यपाल बनाए जाते रहेंगे, वे केंद्र के गुलाम रहेंगे? संविधान प्रदत्त अधिकारों का इस्तेमाल वे अपने विवेक से कभी नहीं कर पाएंगे। 1983 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति राजेंद्र सिंह सरकारिया की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग का गठन कर अन्य बातों के अलावा राज्यपालों की भूमिका की जांच का जिम्मा दिया था। न्यायमूर्ति सरकारिया ने 1600 पृष्ठों की अपनी विस्तृत रिपोर्ट में राज्यपाल के पद पर राजनीतिकों, अवकाश प्राप्त सरकारी अधिकारियों की नियुक्ति नहीं किए जाने की अनुशंसा की थी। लेकिन किसी भी सरकार ने इस पर अमल नहीं किया। और तो और एक बार जब उत्तरप्रदेश के राज्यपाल रोमेश भंडारी ने वहां की सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश की थी तब धरने पर बैठे अटल बिहारी ने घोषणा की थी कि जब भाजपा की सरकार केंद्र में बैठेगी, वे सर्वप्रथम सरकारिया आयोग की रिपोर्ट पर पड़ी धूल की परतों को साफ करेंगे। खेद है कि वाजपेयी के शब्द भी आम राजनीतिक के शब्द बन कर रह गए। भाजपा शासनकाल में भी राज्यपालों की नियुक्ति के मापदंड वही रहे जो कांग्रेस ने अपनाया था और आज भी अपना रही है। फिर क्या आश्चर्य कि आज की नई पीढ़ी राजनीतिकों पर विश्वास करने को तैयार नहीं। क्या ये राजनीतिक कभी विश्वनीय बनेंगे?
रही बात सांप्रदायिकता की तो चूंकि दोनों बड़े दलों, कांग्रेस व भाजपा, में अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व के पक्ष में बयार बह रही है, यह माकूल समय है जब इस बात का फैसला हो जाए कि यह सांप्रदायिकता आखिर है क्या और सांप्रदायिक कौन है? वर्तमान राजनीति के हमाम से जब भी सांप्रदायिकता के बुलबुले उठते हैं, निशाने पर भाजपा व संघ परिवार रहता है। क्या यह नैसर्गिक न्याय के खिलाफ नहीं? हिंदुत्व की बात करने वाले को सांप्रदायिक और किसी और धर्म की बात करने वाले को धर्मनिरपेक्ष निरूपित करने की परिपाटी अब खत्म होनी चाहिए। आज की पीढ़ी यह भी जानना चाहती है कि हिंदू-मुसलमान के नाम पर देश के बंटवारे के पक्षधर धर्मनिरपेक्ष कैसे हो गए? इस पर राष्ट्रीय बहस हो और हमेशा के लिए फैशन के रूप में प्रचलित सांप्रदायिक शब्द के प्रयोग पर विराम लग जाए। युवा पीढ़ी और देश के भविष्य के लिए यह जरूरी है। सभी राजनीतिक दल, सामाजिक संस्थाएं और मीडिया इसके लिए पहल करें। तार्किक परिणिति पर पहुंचने तक बहस चले- बिल्कुल निष्पक्ष, तथ्य परक, बेबाक। दलगत लाभ-हानि के विचार त्याग कर ही यह संभव हो सकता है। अगर सचमुच भारत के राजनीतिक दल देश में सर्वधर्म समभाव और सांप्रदायिक सौहार्द्र चाहते हैं, तब वे आगे आएं- बगैर किसी पूर्वाग्रह के, बगैर किसी दुर्भावना के। अन्यथा अयोध्या और बाबरी मस्जिद और फिर लिबरहान आयोग जैसी खबरें बनती रहेंगी, कोई हल कभी नहीं निकलेगा।

2 comments:

निशाचर said...

आपसे पूर्णतयः सहमत. यह सही समय है कि साम्प्रदायिकता की परिभाषा तय हो जाये और धर्मों को लेकर गर्हित राजनीति का अंत हो.

SP Dubey said...

आप के लेख व विचार से पुर्णतया सहमत है और इस गम्भीर अति मह्त्वपुर्ण विषय पर विचार विमर्ष निर्णायक रुप से होना ही चाहि।
आपकी निश्पक्षता एवं जागरुकता के लीए धन्यवाद