मधु कोड़ा... मधु कोड़ा... मधु कोड़ा!!! आज यह नाम भ्रष्टाचार के पर्याय के रूप में चारों तरफ गुंजायमान है। क्या मधु कोड़ा सत्ता के भ्रष्ट घिनौने भारतीय राजनीति का एकल विद्रूप चेहरा है? मधु कोड़ा को स्थापित करने वाले और इस मुकाम तक पहुंचाने वाले हाथ चेहरे कौन हैं, कहां हैं? एक निर्दलीय विधायक को मुख्यमंत्री पद की कुर्सी क्यों भेंट में दे दी गई थी? क्या सिर्फ इसलिए नहीं कि भारतीय जनता पार्टी को झारखंड की सत्ता से दूर रखा जा सके। यह राजनीतिक मूल्यों का कौन-सा अंश है कि एक दल विशेष को सत्ता से दूर रखने के लिए छह निर्दलीय विधायकों के गुट के मुखिया को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया गया। सत्ता की राजनीति में अपरिपक्व किन्तु अस्थायी समीकरण की कीमत का ज्ञाता युवा मधु कोड़ा को अपने समर्थकों के इतिहास की जानकारी थी। उन्होंने झारखंड का दोहन किया और खूब किया। उपलब्ध खबरों की मानें तो सैंकड़ों-हजारों करोड़ अर्जित किए गए सिर्फ दो वर्ष के अंदर। भ्रष्टाचार हुआ- अवैध कमाई का अंबार खड़ा हुआ-यह निर्विवाद है। विचारणीय यह है कि इस भ्रष्टाचार के पनाले में शामिल या फिर सहयोगी चेहरों को बेनकाब क्यों नहीं किया जा रहा? जिन लोगों के समर्थन के बल पर मधु कोड़ा दो वर्ष तक मुख्यमंत्री बने रहे- कथित रूप से अवैध कमाई करते रहे-क्या वे कोड़ा की गतिविधियों से अंजान थे। यह संभव नहीं है। खबरें आ रही हैं कि मधु कोड़ा उन लोगों को भी 'चढ़ावा' देते थे। झारखंड की राजधानी रांची गवाह है कि स्थानीय स्तर पर समर्थक कांग्रेस दल मधु कोड़ा के मुख्यमंत्री पद पर कायम रहने का विरोधी था। बावजूद इसके केंद्रीय नेतृत्व का वरदहस्त कोड़ा के सिर पर क्यों बना रहा? तब झारखंड अगर लूटा जा रहा था तो निश्चय ही सत्ता के केंद्रीय नेतृत्व के सहयोग-समर्थन से। फिर अकेले मधु कोड़ा के खिलाफ ही कार्रवाई क्यों? कहा जा रहा है कि झारखंड विधानसभा चुनाव में मधु कोड़ा एवं उनके सहयोगियों को बाहर रखने के लिए एक योजना के तहत कार्रवाई की जा रही है। क्या सचमुच यह एक 'राजनीतिक कार्रवाई' है? अगर इस आरोप में सचाई है तो यह गलत है। उपलब्ध प्रमाण मधु कोड़ा को
कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। उनके खिलाफ कार्रवाई हो और जरूर हो, किंतु सहयोगियों को भी नहीं बख्शा जाए। इस बात की जांच हो कि मधु कोड़ा को मुख्यमंत्री बनाए रखने वाले लोग कोड़ा की 'गंगोत्री' से कितने लाभान्वित हुए। भारत की ताजा तालमेल अथवा गठबंधन की राजनीति का यह एक घिनौना चेहरा है। इससे निजात जरूरी है। केंद्र का कांग्रेस नेतृत्व 1989 के लोकसभा चुनाव परिणाम को याद करे, कांग्रेस को तब बहुमत तो नहीं मिला था किंतु सदन में सब से बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। परंतु, राजीव गांधी ने परिणाम को पार्टी के खिलाफ जनादेश निरूपित करते हुए राष्ट्रपति द्वारा आमंत्रित किए जाने के बावजूद सरकार गठन से इंकार कर दिया था। निश्चय ही तब राजीव गांधी ने संसदीय लोकतंत्र में एक आदर्श स्थापित किया था। खेद है, आज सत्ता के लिए बेमेल गठबंधन किए जा रहे हैं। मधु कोड़ा के रूप में दुष्परिणाम सामने है।
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