('दैनिक 1857'के दिनांक 7 नवंबर 2009 के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित हुई मुख्य खबर)
दिल्ली कार्यालय
नई दिल्ली। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी का गुरुवार की रात निधन हो गया। वह 73 साल के थे। उनके शोक संतप्त परिवार में पत्नी , 2 पुत्र , एक पुत्री और नाती - पोते हैं। दिल का दौरा पडऩे के कारण मध्य रात्रि के आसपास गाजियाबाद की वसुंधरा कॉलोनी स्थित उनके निवास पर उनकी मृत्यु हो गई। उनकी पार्थिव देह को विमान से आज दोपहर बाद उनके गृह नगर इंदौर ले जाया जाएगा जहां उनकी इच्छा के अनुसार , नर्मदा के किनारे अंतिम संस्कार कल होगा। उनके निवास स्थान जनसत्ता सोसाइटी में हो रही चर्चाओं के मुताबिक प्रभाष जोशी भारत और ऑस्ट्रेलिया का मैच देख रहे थे। मैच के रोमांचक क्षणों में तेंडुलकर के आउट होने के बाद उन्होंने कहा कि उनकी तबियत कुछ ठीक नहीं है। इसके कुछ समय बाद उनकी तबियत अचानक ज्यादा बिगड़ गई। रात करीब 11:30 बजे जोशी को नरेंद्र मोहन अस्पताल ले जाया गया , जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। प्रभाष जोशी दैनिक जनसत्ता के संस्थापक संपादक थे। मूल रूप से इंदौर निवासी प्रभाष जोशी ने नई दुनिया से पत्रकारिता की शुरुआत की थी। मूर्धन्य पत्रकार राजेन्द्र माथुर और शरद जोशी उनके समकालीन थे। नई दुनिया के बाद वे इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े और उन्होंने चंडीगढ़ में स्थानीय संपादक का पद संभाला।
देसज संस्कारों और सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पित प्रभाष जोशी सर्वोदय और गांधीवादी विचारधारा में रचे बसे थे। जब 1972 में जयप्रकाश नारायण ने मुंगावली की खुली जेल में माधो सिंह जैसे दुर्दान्त दस्युओं का आत्मसमर्पण कराया तब प्रभाष जोशी भी इस अभियान से जुड़े सेनानियों में से एक थे। बाद में दिल्ली आने पर उन्होंने 1974 - 975 में एक्सप्रेस समूह के हिन्दी साप्ताहिक का संपादन किया। आपातकाल में साप्ताहिक के बंद होने के बाद इसी समूह की पत्रिका उन्होंने निकाली। बाद में वे एक्सप्रेस के अहमदाबाद , चंडीगढ़ और दिल्ली में स्थानीय संपादक रहे।
1983 में दैनिक जनसत्ता का प्रकाशन शुरू हुआ , जिसने हिन्दी पत्रकारिता की दिशा और दशा ही बदल दी। 1995 में इस दैनिक के संपादक पद से रिटायर्ड होने के बावजूद वे एक दशक से ज्यादा समय तक बतौर संपादकीय सलाहकार इस पत्र से जुड़े रहे।
प्रभाष जोशी ने हिन्दी पत्रकारिता को नयी दशा और दिशा दी। उन्होंने सरोकारों के साथ ही शब्दों को भी आम जन की संवेदनाओं और सूचनाओं का संवाद बनाया। उनकी कलम सत्ता को सलाम करने की जगह सरोकार बताती रही और जनाकांक्षाओं पर चोट करने वालों को निशाना बनाती रही। उन्होंने संपादकीय श्रेष्ठता पर मैनिजमंट का वर्चस्व कभी नहीं होने दिया। 1995 में जनसत्ता के प्रधान संपादक पद से रिटायर होने के बाद वे कुछ साल पहले तक प्रधान सलाहकार संपादक के पद पर बने रहे। उनका साप्ताहिक कॉलम उनकी रचना संसार और शब्द संस्कार की मिसाल है।
इन दिनों वे समाचार पत्रों में चुनावी खबरें धन लेकर छापने के खिलाफ मुहिम में जुटे हुए थे। प्रभाष जोशी का लेखन इतना धारदार रहा कि उनके अनगिनत प्रशंसक और आलोचक तो हैं , पर उनके लेखन की उपेक्षा करने वाले नहीं हैं।
न कमानों को , न तलवार निकालो तोप मुकाबिल हो , तो अखबार निकालो ... यह पंक्तियां प्रभाष जोशी पर पूरी तरह से सही उतरती हैं। जहां वे 1974-75 में इमर्जंसी के खिलाफ कलम को हथियार बनाए हुए थे , वहीं जब बोफोर्स तोपों की खरीद में कथित घोटाला सामने आया तब वे तब की सरकार को हटाने के लिए जेहादी पत्रकारिता की राह पर चले।
जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के दंगों में सिखों का संहार हो रहा था , प्रभाष जी के नेतृत्व में अल्पसंख्यकों पर आई इस आफत का आइना बन गया। इसी तरह 6 दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद प्रभाष जी ने मंदिर आंदोलन के संचालकों के खिलाफ एक तरीके से कलम विद्रोह कर डाला। परन्तु ऐसा करते समय वे अपना पत्रकारी धर्म नहीं भूले। जहां वे अपने लेखों में अभियानी तेवर के तीखेपन से ढांचा ढहाने के कथित दोषियों के दंभ पर वार करते रहे , वहीं समाचारों में तटस्थता के पत्रकारी कर्म को भी उन्होंने बनाए रखा।
उन्होंने अपने संपादकीय सहकर्मियों की बैठक बुला कर कहा कि वे जो लिखते हैं , उससे प्रभावित होने की जगह समाचारों में निष्पक्ष और तटस्थ रहने की आवश्यकता है।
करीब आधा दर्जन से अधिक पुस्तकों के लेखक प्रभाष जोशी में अपने सहयोगियों के प्रति एक सहज अपनापन रहा। वे उनके दुख और सुख में हमेशा साथ रहते। उनके अभियानी लेखन के आलोचक भी इस सच्चाई को भुला नहीं सकते कि उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता को प्रेस रिलीज और कलिष्ट भाषा के दौर से निकाला और हिन्दी पत्रकारिता को सम्मानजनक स्थान दिलवाया।
जहां आम संपादक अपने अखबार के लिए जाने माने पत्रकारों को बुला कर नौकरी देते , वहीं प्रभाष जोशी ने शुरू से ही अनजाने पत्रकारों को प्रतिभा की कसौटी पर कसा और उन्हें मौका दिया , जो आने वाले समय में भी हिन्दी पत्रकारिता में उनके दिए संस्कारों और सरोकारों की सुगंध फैला कर यह साबित करते रहेंगे कि प्रभाष जोशी की देह भले ही नहीं रही हो, उनका रचना संसार अमर है।
दिल्ली कार्यालय
नई दिल्ली। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी का गुरुवार की रात निधन हो गया। वह 73 साल के थे। उनके शोक संतप्त परिवार में पत्नी , 2 पुत्र , एक पुत्री और नाती - पोते हैं। दिल का दौरा पडऩे के कारण मध्य रात्रि के आसपास गाजियाबाद की वसुंधरा कॉलोनी स्थित उनके निवास पर उनकी मृत्यु हो गई। उनकी पार्थिव देह को विमान से आज दोपहर बाद उनके गृह नगर इंदौर ले जाया जाएगा जहां उनकी इच्छा के अनुसार , नर्मदा के किनारे अंतिम संस्कार कल होगा। उनके निवास स्थान जनसत्ता सोसाइटी में हो रही चर्चाओं के मुताबिक प्रभाष जोशी भारत और ऑस्ट्रेलिया का मैच देख रहे थे। मैच के रोमांचक क्षणों में तेंडुलकर के आउट होने के बाद उन्होंने कहा कि उनकी तबियत कुछ ठीक नहीं है। इसके कुछ समय बाद उनकी तबियत अचानक ज्यादा बिगड़ गई। रात करीब 11:30 बजे जोशी को नरेंद्र मोहन अस्पताल ले जाया गया , जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। प्रभाष जोशी दैनिक जनसत्ता के संस्थापक संपादक थे। मूल रूप से इंदौर निवासी प्रभाष जोशी ने नई दुनिया से पत्रकारिता की शुरुआत की थी। मूर्धन्य पत्रकार राजेन्द्र माथुर और शरद जोशी उनके समकालीन थे। नई दुनिया के बाद वे इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े और उन्होंने चंडीगढ़ में स्थानीय संपादक का पद संभाला।
देसज संस्कारों और सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पित प्रभाष जोशी सर्वोदय और गांधीवादी विचारधारा में रचे बसे थे। जब 1972 में जयप्रकाश नारायण ने मुंगावली की खुली जेल में माधो सिंह जैसे दुर्दान्त दस्युओं का आत्मसमर्पण कराया तब प्रभाष जोशी भी इस अभियान से जुड़े सेनानियों में से एक थे। बाद में दिल्ली आने पर उन्होंने 1974 - 975 में एक्सप्रेस समूह के हिन्दी साप्ताहिक का संपादन किया। आपातकाल में साप्ताहिक के बंद होने के बाद इसी समूह की पत्रिका उन्होंने निकाली। बाद में वे एक्सप्रेस के अहमदाबाद , चंडीगढ़ और दिल्ली में स्थानीय संपादक रहे।
1983 में दैनिक जनसत्ता का प्रकाशन शुरू हुआ , जिसने हिन्दी पत्रकारिता की दिशा और दशा ही बदल दी। 1995 में इस दैनिक के संपादक पद से रिटायर्ड होने के बावजूद वे एक दशक से ज्यादा समय तक बतौर संपादकीय सलाहकार इस पत्र से जुड़े रहे।
प्रभाष जोशी ने हिन्दी पत्रकारिता को नयी दशा और दिशा दी। उन्होंने सरोकारों के साथ ही शब्दों को भी आम जन की संवेदनाओं और सूचनाओं का संवाद बनाया। उनकी कलम सत्ता को सलाम करने की जगह सरोकार बताती रही और जनाकांक्षाओं पर चोट करने वालों को निशाना बनाती रही। उन्होंने संपादकीय श्रेष्ठता पर मैनिजमंट का वर्चस्व कभी नहीं होने दिया। 1995 में जनसत्ता के प्रधान संपादक पद से रिटायर होने के बाद वे कुछ साल पहले तक प्रधान सलाहकार संपादक के पद पर बने रहे। उनका साप्ताहिक कॉलम उनकी रचना संसार और शब्द संस्कार की मिसाल है।
इन दिनों वे समाचार पत्रों में चुनावी खबरें धन लेकर छापने के खिलाफ मुहिम में जुटे हुए थे। प्रभाष जोशी का लेखन इतना धारदार रहा कि उनके अनगिनत प्रशंसक और आलोचक तो हैं , पर उनके लेखन की उपेक्षा करने वाले नहीं हैं।
न कमानों को , न तलवार निकालो तोप मुकाबिल हो , तो अखबार निकालो ... यह पंक्तियां प्रभाष जोशी पर पूरी तरह से सही उतरती हैं। जहां वे 1974-75 में इमर्जंसी के खिलाफ कलम को हथियार बनाए हुए थे , वहीं जब बोफोर्स तोपों की खरीद में कथित घोटाला सामने आया तब वे तब की सरकार को हटाने के लिए जेहादी पत्रकारिता की राह पर चले।
जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के दंगों में सिखों का संहार हो रहा था , प्रभाष जी के नेतृत्व में अल्पसंख्यकों पर आई इस आफत का आइना बन गया। इसी तरह 6 दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद प्रभाष जी ने मंदिर आंदोलन के संचालकों के खिलाफ एक तरीके से कलम विद्रोह कर डाला। परन्तु ऐसा करते समय वे अपना पत्रकारी धर्म नहीं भूले। जहां वे अपने लेखों में अभियानी तेवर के तीखेपन से ढांचा ढहाने के कथित दोषियों के दंभ पर वार करते रहे , वहीं समाचारों में तटस्थता के पत्रकारी कर्म को भी उन्होंने बनाए रखा।
उन्होंने अपने संपादकीय सहकर्मियों की बैठक बुला कर कहा कि वे जो लिखते हैं , उससे प्रभावित होने की जगह समाचारों में निष्पक्ष और तटस्थ रहने की आवश्यकता है।
करीब आधा दर्जन से अधिक पुस्तकों के लेखक प्रभाष जोशी में अपने सहयोगियों के प्रति एक सहज अपनापन रहा। वे उनके दुख और सुख में हमेशा साथ रहते। उनके अभियानी लेखन के आलोचक भी इस सच्चाई को भुला नहीं सकते कि उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता को प्रेस रिलीज और कलिष्ट भाषा के दौर से निकाला और हिन्दी पत्रकारिता को सम्मानजनक स्थान दिलवाया।
जहां आम संपादक अपने अखबार के लिए जाने माने पत्रकारों को बुला कर नौकरी देते , वहीं प्रभाष जोशी ने शुरू से ही अनजाने पत्रकारों को प्रतिभा की कसौटी पर कसा और उन्हें मौका दिया , जो आने वाले समय में भी हिन्दी पत्रकारिता में उनके दिए संस्कारों और सरोकारों की सुगंध फैला कर यह साबित करते रहेंगे कि प्रभाष जोशी की देह भले ही नहीं रही हो, उनका रचना संसार अमर है।
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