Wednesday, November 25, 2009
झूठ के बीज से सच का पौधा!
यह तो अब साबित हो ही गया कि लिबरहान आयोग की गोपनीय रिपोर्ट लीक हुई थी। संसद में पेश रिपोर्ट और अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस में पहले छपी रिपोर्ट में कोई फर्क नहीं है। अब चिंतन-मनन का विषय बनता जा रहा है शीर्ष स्तर पर मौजूद झूठ। क्योंकि यह प्रमाणित हो गया कि जस्टिस मनमोहन सिंह लिबरहान या केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम दोनों में से कोई एक झूठा है। इस तथ्य के सामने आने से पूरा देश परेशान है। अगर देश का गृहमंत्री या सर्वोच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश झूठ बोलने का अपराधी पाया जाता है तब देशवासियों का सिर शर्म से झुक ही जाएगा। अब सवाल यह कि ऐसी शंका के बीच कोई आयोग की रिपोर्ट और सरकार की कार्रवाई रिपोर्ट पर विश्वास कैसे करे? जस्टिस लिबरहान और पी. चिदंबरम की नैतिकता सवालिया निशानों के घेरे में है। जब तक दोनों में से किसी एक की पहचान नहीं हो जाती, दोनों संदिग्ध बने रहेंगे। अगर इनमें नैतिक बल होता तो इंकार की जगह अपराध को स्वीकार कर लेते। खैर, इनसे ऐसी आशा तो की ही नहीं जा सकती। फिर आयोग के नतीजे और सिफारिशों को कोई गंभीरता से ले तो कैसे? जस्टिस लिबरहान ने अच्छे-अच्छे शब्दों का चयन कर एक दार्शनिक की भांति उपदेश व सुझाव भी दे डाले हैं। उन पर सरकार की ओर से कार्रवाई रिपोर्ट तो जारी की गई किन्तु मूल प्रश्न का जवाब नदारद है। सरकार यह बताने से कतरा गई कि आयोग ने बावरी मस्जिद विध्वंस के लिए जिन लोगों को दोषी पाया है, उनके खिलाफ कौन सी कार्रवाई हुई या कार्रवाई करने जा रही है। किसी जांच आयोग की रिपोर्ट पर 'एक्शन टेकेन रिपोर्टÓ अर्थात की गई कार्रवाई की रिपोर्ट का अर्थ क्या होता है? इस बिंदु पर सरकार के मौन में कोई गूढ़ार्थ नहीं। वस्तुत: वह भयभीत है कि अगर तत्काल अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, गिरिराज किशोर व अशोक सिंघल आदि के विरुद्ध कार्रवाई की जाती है, तब उनका पासा ही उलटा पड़ जाएगा। अस्त-व्यस्त बिखरा भाजपा का कुनबा एकजुट होकर ताल ठोंकने लगेगा। सच तो यह है कि लिबरहान आयोग की रिपोर्ट ने भाजपा के लिए 'संजीवनीÓ का काम किया है। अब चाहे आयोग जितना भी कह ले कि धर्म को राजनीति से अलग करने की संवैधानिक अवधारणा का उद्देश्य शासन और धर्म को अलग करना है, किसी के गले उतरने वाला नहीं है। यह ठीक है कि राजनीति में नैतिकता और सदाचार के कुछ पहलुओं को समाहित करना उपयोगी और अपेक्षित है किन्तु, धर्म, जाति या क्षेत्रीयता का इस्तेमाल एक ऐसा प्रतिगामी और खतरनाक रूझान है जो जनता व समाज को बंट देता है। जातीयता और क्षेत्रीयता नि:संदेह एक अत्यंत ही खतरनाक विभाजक शक्ति है। किन्तु कड़वा ही सही यह सच बार-बार प्रमाणित हुआ है कि धर्म को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता। विश्व इतिहास प्रमाण है कि हर काल में धर्म ने राजनीति को प्रभावित किया है। इसीलिए मनीषियों ने सर्वधर्म समभाव की अवधारणा को स्वीकर किए जाने की वकालत की है ताकि समाज किसी धर्म के नाम पर विभाजित न हो पाए। लेकिन यह तभी संभव है जब सभी धर्म के मुखिया परस्पर सद्भावयुक्त आचरण करें। उस राजनीति और राजनीतिकों को क्या कहेंगे जो सत्ता की राजनीति के पक्ष में धर्म के इस्तेमाल के लिए तत्पर हैं? सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने के लिए किसी को सांप्रदायिक और किसी को धर्मनिरपेक्ष निरूपित करना राजनीति का ही एक अंग है। लिबरहान आयोग की रिपोर्ट के बाद दुखद रूप से एक बार फिर पूरा समाज धार्मिक उन्माद से रूबरू होगा। राजनीतिक लाभ लिए जाएंगे सामाजिक एकता की कीमत पर।
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3 comments:
इस रिपोर्ट पर मचने वाला हो-ह्ल्ला बेकार है और इससे कुछ्भी सामने आने वाला नहीं है.....
इस बात की जांच होनी चाहिए कि रिपोर्ट लिक कैसे हुइ
अच्छी रचना। बधाई।
आप बहुत ठीक कह रहे हैं.... इस रिपोर्ट के बाद चाहे जो भी किया जाए लाभ केवल भारतीय जनता पार्टी को ही होगा । अब लालू-भालू और आलुओं का क्या होगा ? उन की औकात तो गरियाने की भी नहीं रही....अमर सिंह की फजीहत तो सब ने देख ही ली ।
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