देवबंद के जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिंद अपने एक सम्मेलन में फतवा जारी करता है कि मुस्लिम समुदाय देश के राष्ट्रगीत वंदेमातरम् का गान न करे। तर्क यह दिया गया कि इस्लाम में अल्लाह के सिवा किसी और के आगे सजदा करना मना है। वंदेमातरम में देश के लिए सजदा गाया गया है। उसी सम्मेलन में देश के गृहमंत्री पी. चिदंबरम अयोध्या में विवादित ढांचे के कथित विध्वंस को धार्मिक उन्माद और पूर्वाग्रह से ग्रस्त बताते हैं। देश के लिए अल्पसंख्यकों की उपेक्षा को खतरनाक घोषित करते हैं। राष्ट्र का आह्वान करते हैं कि अल्पसंख्यकों की रक्षा की जवाबदारी बहुसंख्यक ले लें। अर्थात भारत के गृहमंत्री बहुसंख्यक हिंदू और अल्पसंख्यक मुसलमान के बीच विभाजक रेखा को कायम रखना चाहते हैं। फिर वंदेमातरम् के खिलाफ जारी फतवे पर आश्चर्य क्यों?
जब-जब इस देश में मुस्लिम तुष्टिकरण की प्रक्रिया तेज हुई है, सरकार पर- समाज पर वे दबाव बढ़ा देते हैं। मुस्लिम कट्टरपंथी शासन प्रदत्त इस हथियार का उपयोग आजादी के बाद से लगातार करते आए हैं। सामान्यत: शांत मुस्लिम समुदाय बेचारा इन कट्टरपंथियों का अनायास शिकार हो जाता है। पिछले दिनों लोकसभा और कुछ अन्य विधानसभाओं के चुनाव में एक योजना के तहत कतिपय राजनीतिक बिखर-बंट चुके मुस्लिम वोट बैंक को पुन: एकत्रित कर अपने पक्ष में करने में सफल रहे थे। मुस्लिम कट्टरपंथी भला 'मेहनताना' वसूलने में पीछे क्यों रहते? सत्ता की कमजोर नब्ज से ये भलीभांति वाकिफ हैं। समाज में सांप्रदायिक तनाव कायम रखने को ही ये तत्व अपना सुरक्षा कवच मानते हैं। अपने लिए भरपूर सुख-सुविधा का माध्यम इसे मानते हैं ये लोग। फिर क्या आश्चर्य कि देवबंद के जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिंद ने फतवा जारी कर दिया कि मुस्लिम समुदाय वंदेमातरम् गीत न गाए। केंद्र में गठित नई सरकार पर दबाव का यह नुस्खा कितना कारगर साबित होगा, यह तो भविष्य बताएगा। पर आज जो स्पष्टत: दृष्टिगोचर है वह यह कि समाज में तनाव बढ़ेगा और सरकार इसके खिलाफ कोई निर्णायक कदम नहीं उठा पाएगी। देवबंद के जिस सम्मेलन में यह फतवा जारी किया गया, उसमें मौजूद केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम के 'मौन' ने अनेक प्रश्न खड़े कर दिए हैं। हालांकि, मामले के तूल पकडऩे पर सरकार की ओर से कहा गया कि गृह मंत्री को फतवा जारी करने संबंधी प्रस्ताव की जानकारी नहीं थी, और यह कि चिदंबरम ने लिखित भाषण पढ़ा था इसलिए वे और कुछ नहीं कह पाए। क्या यह सफाई किसी के गले उतर सकती है? कदापि नहीं। जब फतवा संबंधी प्रस्ताव सम्मेलन में पारित हो रहा था, गृहमंत्री वहां मौजूद थे। हिंदी और उर्दू जुबान की जानकारी है उन्हें। फतवे की जानकारी अवश्य हुई होगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि अल्पसंख्य तुष्टिकरण की नीति पर चलने वाली सरकार का यह नुमाइंदा सम्मेलन में जानबूझकर खामोश रहा? संभावना इस आशंका की अधिक है। फिर से इकट्ठे वोट बैंक के बिखरने का जोखिम चिदंबरम नहीं उठाना चाहते थे। देश के गृहमंत्री के रूप में चिदंबरम की यह एक बड़ी विफलता है। उन्हें आपत्ति प्रकट करनी चाहिए थी, प्रतिवाद करना चाहिए था। देवबंद के सम्मेलन में पारित यह प्रस्ताव कि इस्लाम में सिर्फ खुदा के सामने सिर झुकाया जाता है, इसलिए मुसलमान यह गीत न गाए, निंदनीय है। वंदेमातरम् भारत माता की वंदना है। वह भारत माता जिसकी संतान यहां रहने वाले सभी हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई आदि-आदि हैं। भला किसी को अपनी माता की वंदना से रोका कैसे जा सकता है? खुदा भी इसकी मंजूरी नहीं देंगे। जाहिर है कि देवबंद सम्मेलन से जारी फतवा समाज में सांप्रदायिक व धार्मिक विद्वेष फैलाने का प्रयास है। क्या सरकार इसके खिलाफ कदम उठाएगी? देश के बहुलवादी चरित्र को उसकी ताकत निरूपित करने वाले गृहमंत्री चिदंबरम से देश यह भी जानना चाहेगा कि सम्मेलन में उन्होंने अयोध्या में विवादित ढांचे के कथित विध्वंस का पुराना मुद्दा क्यों उठाया? सम्मेलन में मौजूद मुस्लिमों और देश को वे क्या संदेश देना चाहते थे? गृहमंत्री यह न भूलें कि अल्पसंख्यंकों की उपेक्षा अगर खतरनाक है तो तुष्टिकरण खतरनाक सांप्रदायिक प्रवृत्ति का पोषक है। बेहतर हो, कम से कम सरकारी स्तर पर हिंदू, मुसलमान के बीच भेदभाव को हवा न दी जाए। जरूरी यह भी है कि सम्मेलन में केंद्रीय गृहमंत्री की मौजूदगी के कारण उत्पन्न यह भ्रम कि फतवे को वैधानिकता मिल गई है, सरकार अपनी स्थिति स्पष्ट करे। कोई यह न भूले कि मुट्ठीभर कट्टरपंथियों को छोड़ देश का हर हिन्दू-मुसलमान सांप्रदायिक सौहाद्र्र के साथ शांति की जिंदगी व्यतीत करना चाहता है।
9 comments:
ur analysis is 24 karat Gold !
विनोद जी, अगर १९२० और १९४० के बीच की भारतीय राजनीति खासकर कौंग्रेस की राजनीति , उस समय के आतंरिक धार्मिक उन्माद पर अगर आप गौर करे और उसकी तुलना आज के राजनैतिक माहौल खासकर कौन्ग्रेस, मुस्लिम धार्मिक उन्माद से तुलना करे तो बहुत सी बातो में समानता मिलेगी ! कहने का तत्पर यह है कि उस १९२० से १९४० के बीच की स्थिति ने हमें १९४७ दिखाया, आज जो हो रहा है उससे आगे क्या होगा, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है, ऐसा लग रहा है कि देश एक और विघटन की ओर अग्रसर है !
इतिहास दोहराया जा रहा है. कॉग्रेस अपनी भूल से सीखने को तैयार नहीं. यानी दुसरे पाकिस्तान के लिए तैयार रहें. जै हो....
यह जागरूक हिन्दुओं को कट्टरता और हिंसा की और धकेलने का कांग्रेसी प्रयास है. कांग्रेस देश का पुनः विभाजन चाहती है? इस सांप्रदायिक वैमनस्य की एक ही काट है- हिन्दुओ को एकजुट होकर एक वोट बैंक की तरह काम करना होगा. जिस दिन ऐसा हो जायेगा यह तुष्टिकरण और भयदोहन अपने आप समाप्त हो जायेगा.
इतिहास दोहराया जा रहा है. कॉग्रेस अपनी भूल से सीखने को तैयार नहीं. यानी दुसरे पाकिस्तान के लिए तैयार रहें.
ur analysis is 24 karat Gold !
इतिहास दोहराया जा रहा है. कॉग्रेस अपनी भूल से सीखने को तैयार नहीं. यानी दुसरे पाकिस्तान के लिए तैयार रहें.
ऐसा लग रहा है कि देश एक और विघटन की ओर अग्रसर है !
मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ वो संजय जी और मीनू जी ने कह दिया है .......
तिहास दोहराया जा रहा है. कॉग्रेस अपनी भूल से सीखने को तैयार नहीं. यानी दुसरे पाकिस्तान के लिए तैयार रहें. जै हो..
वन्दे मातरम! यह कैसा धर्म है जो राष्ट्र धर्म के आड़े आए?
निंदनीय फ़तवा, पता नहीं उलेमा वालों को वंदे मातरम् से क्या परेशानी है. मातृभूमि की वंदना से भला खुदा क्यों नाराज होने लगा. तुर्की आदि अनेक मुस्लिम देशों के गीत में मातृभूमि की स्तुति की गई है, उनका तो इससे मजहब नहीं बिगड़ता. हाँ अगर वंदे मातरम् संस्कृत/बांग्ला की जगह उर्दू में होता तब शायद कट्टरपंथियोँ को इससे परहेज न होता.
रही बात कॉंग्रेस की तो उसे पता नहीं कितने पाकिस्तान बनवा कर चैन मिलेगा.
Post a Comment