centeral observer

centeral observer

To read

To read
click here

Tuesday, November 24, 2009

दुष्चरित्र राजनीति का तांडव!

क्यों और कैसे आज की राजनीति इतनी दुष्चरित्र हो गई है? संसद के अंदर सच-झूठ पर अंतहीन चिल्लपों! फिर भी परिणाम शून्य। झूठ, फरेब, चालबाजी के बीच संसद में सच के साथ बलात्कार! यह कैसे संभव हो रहा है? क्या सिर्फ सुविधा की राजनीति के लिए लोकतंत्र, संसद और संविधान की मर्यादा, पवित्रता होम कर दी जाए? कोई भी विवेकशील इसके पक्ष में हाथ नहीं उठाएगा। इस निर्विवाद परिणाम की मौजूदगी के बावजूद हमारे चुने हुए जनप्रतिनिधि ऐसे अनाचार के भागीदार क्यों बन रहे हैं? विगत कल सोमवार की सुबह अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस ने बाबरी विध्वंस की जांच के लिए गठित एक सदस्यीय जस्टिस मनमोहन सिंह लिबरहान आयोग की अब तक गोपनीय रिपोर्ट के कथित अंश प्रकाशित कर डाले। अखबार के अनुसार छद्म उदारवादी पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी, संसद में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी, भाजपा के पूर्व अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी आदि भी बाबरी मस्जिद विध्वंस के जिम्मेदार हैं। रिपोर्ट के 'लीक' होने और उसमें कथित रूप से उल्लेखित आरोपियों के नाम पर संसद के अंदर हंगामा हुआ। यह स्वाभाविक था। सवाल उठे कि रिपोर्ट लीक कैसे हुई? रिपोर्ट के लीक होने के 'समय' पर भी संदेह प्रकट किए गए। केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम की मानें तो रिपोर्ट की सिर्फ एक प्रति है और वह गृह मंत्रालय में सुरक्षित रखी हुई है।
तब फिर इंडियन एक्सप्रेस और टीवी चैनल एनडीटीवी के पास रिपोर्ट कैसे पहुंच गई? गृहमंत्री के बाद स्वयं न्यायमूर्ति लिबरहान ने भी रिपोर्ट के लीक किए जाने से इंकार कर दिया है। अगर इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट और एनडीटीवी के दावे को सच माना जाए, तब यह तो तय है कि दोनों में से एक झूठ बोल रहे हैं। सरकार, संसद और न्यायपालिका के लिए यह एक अत्यंत शर्मनाक घटना विकासक्रम है। विपक्ष का संदेह और आक्रोश गलत नहीं। अगर उनके आरोपों को मानें तब सरकार ने जानबूझकर ऐसे समय पर रिपोर्ट को लीक किया जब गन्ना मूल्य के मुद्दे पर केंद्र सरकार कटघरे में है। कांग्रेस समर्थित झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा के कथित खरबों रुपयों के भ्रष्टाचार के मामले से पूरा देश स्तब्ध है और झारखंड विधानसभा चुनाव के लिए आगामी कल बुधवार को पहले चरण का मतदान हो रहा है। अगर यह आरोप सच है तब मनमोहन सिंह सरकार को सत्ता में बने रहने का कोई हक नहीं है। यह तो छल और फरेब की राजनीति है। इसे सिंचित नहीं किया जा सकता। अखबार में प्रकाशित रिपोर्ट की भाषा साफ-साफ यह सिद्ध करती है कि रिपोर्ट पूर्वाग्रह से ग्रसित है। न्यायमूर्ति लिबरहान जांच परिधि की सीमा से बाहर चले गए हैं। उनकी यह टिप्पणी कि वाजपेयी, आडवाणी और जोशी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वे अपने राजनीतिक भविष्य को अंधकारमय बनाते हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आदेशों को मानने से इंकार कर देते, उनकी पूर्वाग्रही सोच को ही चिह्नित करता है। क्या यह मुद्दा लिबरहान आयोग की जांच का विषय था? यह आश्चर्यजनक है कि न्यायमूर्ति लिबरहान ने नाजी सैनिकों पर चले मुकदमे की सुनवाई को उद्धृत करते हुए वाजपेयी, आडवाणी और जोशी को संदेह का लाभ देने से भी इंकार कर दिया है। नाजी सैनिकों पर मुकदमे के दौरान यह दलील दी गई थी कि उन्होंने तो सिर्फ अपने वरिष्ठ अधिकारियों के आदेशों का पालन किया था। निश्चय ही नाजी सैनिकों के साथ वाजपेयी, आडवाणी और जोशी की तुलना कर न्यायमूर्ति लिबरहान भारतीय लोकतंत्र के अपराधी बन गए हैं। बाबरी मस्जिद विध्वंस के कारणों की जांच कर रहे न्यायाधीश लिबरहान को यह अधिकार किसने दिया कि वे अटल बिहारी वाजपेयी, आडवाणी, जोशी के विरुद्ध मतदाता के विश्वासहनन संबंधी टिप्पणी करें? क्या यह पूर्वाग्रही सोच नहीं? संदेह तो तब और भी गहरा गया जब स्वयं लिबरहान आयोग के पूर्व वकील अनुपम गुप्ता ने रिपोर्ट पर संदेह व्यक्त कर डाला। गुप्ता ने सवाल किया है कि जब अटल बिहारी वाजपेयी को आयोग ने सम्मन ही नहीं किया तो उनको आयोग दोषी कैसे करार दे सकता है? वर्षों तक आयोग के साथ काम कर चुके गुप्ता का सवाल निर्मूल नहीं है। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव को क्लीन चिट दिया जाना भी संदेहास्पद है। पूरा देश जानता है कि उस दिन राव प्रधानमंत्री निवास में टीवी के सामने बैठकर बाबरी विध्वंस को देख रहे थे। आश्चर्यजनक रूप से केंद्र सरकार की सफाई भी न्यायमूर्ति लिबरहान ही देते हैं। उनका कहना है कि जब तक राज्यपाल अनुशंसा न करें, केंद्र सरकार कुछ नहीं कर सकती। संदर्भ ग्रंथ व संचिकाएं खंगाल ली जाएं, अनेक ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जब बगैर राज्यपाल की अनुशंसा और उन्हें विश्वास में न लेते हुए केंद्र सरकार ने निर्णय लिए। राजीव गांधी की हत्या के बाद बगैर राज्यपाल की अनुशंसा के क्या केंद्र सरकार ने तमिलनाडु की सरकार को बर्खास्त नहीं कर दिया था? बहस का यह मुद्दा नहीं है। यह तो एक और प्रमाण है न्यायमूर्ति लिबरहान की पूर्वाग्रही सोच का। तत्कालीन प्रधानमंत्री राव इतने बड़े 'विध्वंस' को देख कर भी निष्क्रिय बने रहने के अपराधी थे। विध्वंस के लिए उनकी केंद्र सरकार भी उतनी ही जिम्मेदार थी जितनी उत्तर प्रदेश की तत्कालीन कल्याण सिंह सरकार। कल्याण सिंह को तो फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने एक दिन के लिए तिहाड़ जेल भेज दिया था। लेकिन नरसिंह राव तब भी बेदाग रहे और आज भी मरणोपरांत क्लीन चिट पा गए। संसद में सरकार की ओर से इस मुद्दे पर खामोशी दुखदायी है। रिपोर्ट के लीक होने पर और कथित रूप से उल्लेखित अनुशंसाओं, टिप्पणियों पर शंका समाधान तुरंत किया जाना चाहिए था। रिपोर्ट को सदन पटल पर रखकर सरकार स्थिति को साफ कर सकती थी। इसी सत्र में रिपोर्ट को सदन में रखने का वचन देनेवाली सरकार पर लगाए गए आरोप तो कायम रह ही गए।

2 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...
This comment has been removed by the author.
पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

यह जानने के लिए कि सच कौन और झूट कौन बोल रहा है, दोनों यानी सरकार और लिब्राहन का नारको टेस्ट किया जाना चाहिए :)
हा-हा, सच तो यह है की कॉंग्रेसी राजनीति ने इस देश में निम्नता की सारी हदे पार कर दी है ! जो यह इस वक्त किया गया यह भी सोच समझकर उसी निम्न निति का हिस्सा है, जिसका तात्कालिक उद्देश्य दो थे : १. लोगो का ध्यान गन्ना प्रकरण से और कोड़ा काण्ड से हटाना
२. मुंबई हमलो पर अपनी विफलता छुपाना ! और कुछ नहीं, अगर पिछले 62 सालो पर गौर करे तो यह फंडा इन्होने समय-समय पर अपनाया है !
पता नहीं लोग कब इन्हें समझेंगे !