centeral observer

centeral observer

To read

To read
click here

Friday, November 13, 2009

क्यों न बने एशियाई महासंघ!

बात 1981 की है। इंदिरा गांधी तब प्रधानमंत्री थीं। एक दिन सेना के एक बड़े अधिकारी ने हम कुछ पत्रकारों को अनौपचारिक रुप से भोजन पर आमंत्रित किया। गर्मी की दोपहरी में गैरिसन की ठंडक को बढ़ाते ठंढे बीयर! सामिष-निरामिष लज्जतदार भोजन! बिल्कुल अनौपचारिक वातावरण में बे-तकल्लुफ सैन्य अधिकारी, मौसम, सिनेमा, मनोरंजन आदि विषयों पर शायराना अंदाज में हमसे मुखातिब थे। क्या इन्हीं बातों के लिए हमें बुलाया गया? जेहन में सवाल उठ रहे थे। अचानक सेना अधिकारी ने पूछ लिया कि अगर भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका का एक महासंघ बन जाए तब कैसा रहेगा? सभी चौंक उठे। सेना अधिकारी ने सहजता से यह जोड़ दिया कि सवाल बिल्कुल निजी है...यूं ही अपनी ज्ञानवृद्धि के लिए इस विषय पर राय जानना चाह रहा हूं। उन्होंने बार-बार 'अपना निजी सवाल' पर जोर दिया। कुछ पत्रकार मित्रों ने उत्साह में अपनी राय दी भी। मिलन कार्यक्रम की समाप्ति के बाद मैं घर से वापस दोबारा उक्त अधिकारी से मिलने पहुंचा। मैंने उनसे भोजन आयोजन के औचित्य और कथित 'महासंघ' संबंधी उनकी जिज्ञासा पर जानकारी चाही। सैनिक अनुशासन से बंधे अधिकारी खुलकर कुछ बोल नहीं सकते थे। लेकिन उनके शब्दों में निहित संकेत से जो अनुमान मैं लगा पाया वह यह कि उच्च स्तर पर प्राप्त निर्देश के आधार पर सेना अधिकारी हम लोगों के माध्यम से उक्त विषय पर आम लोगों की प्रतिक्रिया जानना चाह रहे थे। बात आई-गई, खत्म हो गई।
आज जब यूरोप में एकता की नई राजनीतिक क्रांति की जानकारी मिली तब अनायास उपर्युक्त घटना मेरे मस्तिष्क में कौंध गई। यूरोपीय देश आर्थिक, विदेशी और सुरक्षा नीति बनाने संबंधी अधिकार एक साझा यूरोपीय प्रशासन यानि सरकार को सौंपने पर सहमत हो गए हैं। सचमुच यह पहल 21वीं सदी की सबसे बड़ी क्रांति है। इसे एक सफल एकीकरण आंदोलन निरुपित किया जा रहा है, तो बिल्कुल सही ही। एक ओर भारत सहित संसार के अनेक हिस्सों में अलगाववाद, आजादी, स्वायतता और स्वशासन के लिए हिंसक खूनी आंदोलन चल रहे हैं, यूरोप की इस पहल ने विकल्प के सुंदर द्वार खोल दिए हैं। क्या दक्षिण एशियाई देश इस मार्ग का कभी अनुकरण करेंगे? विकास और शांति की दिशा में यूरोपीय देशों ने बेमिसाल, सफल उदाहरण पेश किए हैं। अपनी सीमाओं की दीवारें गिराकर चेक-पोस्ट हटा लिए हैं। यूरोपीय संघ के किसी भी सदस्य देश में आने-जाने के लिए सिर्फ एक वीजा काफी है। क्या भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, भूटान के बीच कोई ऐसी संधि नहीं हो सकती? एक संस्कृति, एक सभ्यता वाले इन देशों के शासकों को यह प्रस्ताव फिलहाल पसंद नहीं आएगा। शासन की ललक और अहं उन्हें ऐसा करने से रोकेगा। लेकिन यूरोपीय देश भी तो इसी संसार के अंग हैं। जब शरीर के किसी अंग में थिरकन होती है तो पूरा शरीर स्पंदित होता है। आज न कल यूरोपीय देशों की यह पहल संसार के अन्य देशों के लिए एक आदर्श की भूमिका निभाए तो कोई आश्चर्य नहीं। ध्यान रहे लिस्बन संधि को लागू करने के बाद 27 देशों का यूरोपीय संघ संसार में एक ऐसी ताकत के रूप में उभरेगा, जिसके आगे अमेरिका, जापान, रूस और चीन भी शायद नतमस्तक हो जाने को मजबूर हो जाएंगे।

3 comments:

KK Mishra of Manhan said...

बहुत उम्दा विचार है! किन्तु अब हमें एशिया से आगे निकल कर एर्थिस्म या ग्लोबल स्तर पर कुछ करना चाहिये!
शुभकामनायें

Udan Tashtari said...

अच्छा लगा आपका यह विचारणीय आलेख.

मनोज कुमार said...

नई विचारोत्तेजक बात।