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Friday, November 20, 2009

संदेह है, फिर निराकरण क्यों नहीं!

कविता करकरे कह रही हैं कि यह कितना हास्यास्पद है कि एटीएस प्रमुख सुरक्षित नहीं है और इस तरह मारा जाता है। ऐसे में इस देश में आम आदमी कैसे खुद को सुरक्षित महसूस करेगा? 26 नवंबर 2008 को मुंबई पर आतंकी हमले के दौरान शहीद एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे की पत्नी हैं कविता करकरे। पति की मौत पर उनके दिल में अनेक सवाल खड़े हो रहे हैं। हालांकि वे खिन्न हैं सुरक्षा व्यवस्था को लेकर, किन्तु उनकी जिज्ञासा में निहित सवाल गंभीर हैं। कविता का यह आरोप भी गंभीर है कि हेमंत करकरे को जरूरत के वक्त मदद नहीं मिली थी। ध्यान रहे कि इसके पूर्व हेमंत करकरे द्वारा धारण किए सुरक्षा जैकेट के घटिया होने के आरोप लग चुके हैं। जैकेटों की खरीद में कथित भ्रष्टाचार की जांच भी चल रही है। आश्चर्यजनक रूप से इस बीच वह सुरक्षा जैकेट गायब हो गया, जिसे हेमंत करकरे ने आतंकवादी हमले के दौरान धारण कर रखा था। क्या इसे कोई एक सामान्य चोरी की घटना निरूपित कर सकता है? कहीं न कहीं दाल में काला है अवश्य। करकरे की मौत पर तब केन्द्रीय मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले ने कुछ सवाल उठाए थे। घटना स्थल पर करकरे के पहुंचने को लेकर संदेह प्रकट करते हुए अंतुले ने कुछ असहज टिप्पणियां की थीं। संसद से लेकर सड़कों तक अंतुले की टिप्पणी पर बवाल मचा। सभी ने एक स्वर से अंतुले की आलोचना की थी। उन्हें देशद्रोही और आतंकियों का सहयोगी तक बता दिया गया था। शायद 26 नवंबर के आतंकी हमले की विभीषिका से उत्पन्न राष्ट्रीय आक्रोश के कारण अतुंले को निशाने पर लिया गया था। लेकिन अब? अब तो स्वयं श्रीमती करकरे घटना पर सवालिया निशान जड़ रही हैं। बल्कि वे तो पूरे मामले को ही संदिग्ध बता रही हैं। अपने पति और अन्य दो शहीद वरिष्ठ अधिकारियों को वक्त रहते मदद नहीं उपलब्ध कराए जाने का उनका आरोप गंभीर है। चूंकि आतंकी हमले में स्थानीय लोगों की संलिप्तता के कोण को खारिज नहीं किया जा सका है, श्रीमती करकरे का आरोप औचित्यहीन तो कदापि नहीं। क्या जांच एजेंसियां श्रीमती करकरे के आरोप को अपनी जांच के दायरे में लाएंगी?
हेमंत करकरे की मौत पर उठ रहे सवालों के जवाब क्या होंगे, इसका अनुमान कठिन नहीं। देश में अनेक ऐसी घटनाएं, दुर्घटनाएं हुई हैं जिनके जांच परिणाम हमेशा संदिग्ध रहे हैं। कुछ की तो जांच भी नहीं हुई जबकि अनेक हस्तियों की संदिग्ध मौतें हुईं। श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, संजय गांधी की मौत पर उठे सवाल तत्काल दबा दिए गए थे। बावजूद इसके संदेह आज भी कायम है। चाहे लोग न बोलें पर यह कड़वा सच मौजूद है। तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री ललित नारायण मिश्र की एक बम धमाके से की गई हत्या के असल आरोपी अब तक सामने नहीं आ पाए। कथित रूप से आनंद मार्गियों पर आरोप लगा मामले को हल्का कर दिया गया। सचाई आज तक सामने नहीं आ सकी। अटपटा तो लगता है किन्तु इससे इंकार तो नहीं किया जा सकता कि संजय गांधी की विमान दुर्घटना में मौत पर फुसफुसाहटें हुई थीं। सवाल खड़े हुए थे, जिनके जवाब आज तक नहीं मिले। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या की जांच हुई, एक हत्यारे को फांसी पर भी चढ़ा दिया गया। किन्तु क्या कोई बताएगा कि हत्या की जांच हेतु गठित कार्तिकेयन कमेटी की रिपोर्ट पर क्या कार्रवाई हुई? कहते हैं कि उस रिपोर्ट में शक की सुई कुछ बड़े नामों पर अटकी थी। सच पर पर्दा पड़ा रहा। राजीव गांधी की हत्या और हत्यारों पर अनेक सवाल खड़े किए जा चुके हैं। कहने का तात्पर्य यह कि ऐसे मामलों में खड़े हुए संदेह, संदेह ही बने रह जाते हैं। इनका निराकरण नहीं हो पाता। जबकि प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत है कि संदेह की पूरी छानबीन कर सभी का स्वीकार्य समाधान ढूंढा जाए। क्यों नहीं होता है ऐसा? शहीद हेमंत करकरे की पत्नी यही तो जानना चाहती हैं।

2 comments:

मनोज कुमार said...

अच्छी रचना। बधाई।

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

टिप्पणी विषय से हटकर भी है और सम्बंधित भी है; मुझे जो लगता है या यूँ कहूँ कि शहीद करकरे प्रसंग को जो अब तक मैंने पढने की कोशिश की तो मेरे समक्ष तीन बाते आयी, एक यह कि शहीद करकरे शिखर पर पहुँचने के लिए बहुत ही उत्साही ( सही शब्द नहीं ढूंढ पा रहा ) किस्म के इंसान थे और जीवन की बुलंदियां छूने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तत्पर थे !
(जिसकी संभावना इतनी मजबूत मुझे नहीं दिखाई देती !)
दूसरी बात, शायद करकरे एक निहायत भोले और सीधे-साधे नेचर के इंसान थे और सियासी दवाव में आकर कुछ भी कर डालते थे, जोकि उन्हें खुद भी लगता था कि वे कुछ गलत कर रहे है, मगर ऊपर से राजनैतिक दबाव की मजबूरी थी !
जिसकी संभावना मुझे अधिक लग रही है ! और उन्हें शायद इरादतन आतंकवादी वारदात की जगह पर जाने के लिए दबाव डाला गया था !क्योंकि सियासी मकसद पूरा होने के बाद राजनीति के धुरंदर उन्हें अपने लिए भविष्य में एक ख़तरा समझने लगे थे !
तीसरी बात, वे बहुत ही लापरवाह किस्म के अधिकारी थे, सिर्फ ऊपर वालो को खुश रखने की कोशिश करते थे, वरना माले गांग के दोषी तो उनकी नजरो में आ गए मगर जो मुंबई में बैठा २६/११ रच रहा था, उस पर किसी की नजर नहीं गई !
इसे अन्यथा न ले सिर्फ एक आशंका जाता रहा हूँ !