Sunday, November 1, 2009
झूठ के बोझ तले सिसकता सच!
पिछले दिनों इस स्तंभ में 'अमेरिकी दिलचस्पी आपत्तिजनक' शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित विचारों पर अबूधाबी से एस.पी. दुबे ने सहमति जताते हुए पूछा है कि क्या सरकार तक बात पहुंच पाएगी और सरकार अपने सरकार होने का परिचय देगी? दुबे की इस जिज्ञासा में निहित आशंका बेमानी नहीं है। वैसे अगर सरकारी अधिकारी /कर्मचारी अपना दायित्व निष्पादन करें तो निश्चय ही मुद्रित/प्रकाशित विचार सरकार में बैठे संबंधित व्यक्ति तक पहुंच जाएंगे। किन्तु पूर्वाग्रहों और अन्य वर्जनाओं से पीडि़त अधिकांश सरकारी कर्मचारी स्वयं 'सेंसर' बन बैठे हैं। अपनी पसंद-नापसंद के आधार पर फैसले लेने के लिए ये कुख्यात हैं। इनके अलावा पहुंचवाले मीडिया कर्मी भी इन्हें प्रभावित करने से बाज नहीं आते। अपने खास एजेंडे पर चलने वाले ऐसे मीडिया कर्मी कतिपय 'असहज' सामग्री सरकार के संज्ञान में आने से रोक देते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि फिर एस.पी. दुबे जैसे व्यक्ति के मन में सामान्य सरकारी प्रक्रिया को लेकर भी संदेह पनप जाते हैं। अपेक्षा मीडिया जगत से है। इस जगत में बहुसंख्यक 'पूर्वाग्रही जीव' की खतरनाक मौजूदगी के बावजूद अभी भी इनकी ओर से समाज पूरी तरह निराश नहीं हुआ है। जागो दोस्तों, जागो! अपने पाठकों को, समाज को निराश मत करो। वे आग्रही हैं, तुम्हारे तथ्यपरक शब्दों के, तुम्हारी निष्पक्षता के। एक समय था जब योद्धा पत्रकार के रूप में सुख्यात पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने 'भविष्य की पत्रकारिता' पर टिप्पणी की थी कि पत्रकार समुदाय अगर संगठित नहीं हो पा रहा है तो इस कारण कि संपादकगण और संचालकगण अनुशासित होने को तैयार नहीं हैं। और यह कि जिन पूंजीपतियों के हाथ में देश के कुछ शक्तिशाली समाचार पत्र हैं, वे इस बात का भय मानते हैं कि यदि साहसी गरीब 'उपक्रम' पत्रकार संघ में बलवान हो गया तो उनकी निरंकुशता तक पूंजीवादी इमारत की नींव हिलने लगेगी। 20 के दशक में व्यक्त माखनलाल चतुर्वेदी के ये शब्द क्या आज भी प्रासंगिक नहीं हैं? एक ताजातरीन उदाहरण देना चाहूंगा। विगत कल 31 अक्टूबर को देश के प्राय: सभी छोटे-बड़े अखबारों में दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का पुण्य स्मरण करते हुए उन्हें जिस रूप में महिमामंडित किया गया, उतना उनके जीवनकाल में भी नहीं किया गया था। विशेषण के रूप में प्रयुक्त होने वाले प्रशंसा के कोई भी शब्द अछूते नहीं रहे। उनके 16 वर्ष के प्रधानमंत्रित्व काल को उपलब्धियों का खजाना निरूपित कर अतुलनीय रूप में प्रस्तुत किया गया। क्यों? 1984 के बाद 31 अक्टूबर तो कई बार आया। शायद वे जवाब दें कि यह वर्ष उनकी हत्या का 25वां वर्ष है। तो क्या वे इंदिरा गांधी की हत्या से उत्पन्न मातम की रजत जयंती मना रहे हैं? इस उत्तर को कोई स्वीकार नहीं करेगा। सच-कड़वा सच कुछ और है। अगर हिम्मत है तो वे डंके की चोट पर स्वीकार करें कि उनकी निगाहें अथवा लक्ष्य 'राजनीतिक प्रासाद' है। मन तब असहज हो उठा जब स्व. रामनाथ गोयनका के अंग्रेजी दैनिक 'इंडियन एक्सप्रेस' को इस पंक्ति में खड़ा पाया। गोयनका का यह अखबार आपातकाल के दौरान इंदिरा शासन के हाथों हर तरह से प्रताडि़त किया गया था। अखबार कभी झुका नहीं। इसके संपादक प्रख्यात पत्रकार कुलदीप नैयर को गिरफ्तार कर उसी इंदिरा शासन में जेल में ठूंस दिया था। आज उसी इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक शेखर गुप्ता जब इंदिरा गांधी का स्तुतिगान करते दिख रहे हैं तब क्या 'माध्यम' विलाप नहीं करेगा? जब 'माध्यम' 'व्यवस्था' का अंग बन जाए तब 'सच' झूठ के बोझ तले सिसकियां भरने को मजबूर कैसे न हो?
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2 comments:
झूठ के बोझ तले सिसकता ! वाकई एक गहरी पोस्ट है। गंभीरता से देखे तो श्रीमती इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी काल में प्रेस का खूब दमन किया। उस समय अनेक छोटे बड़े अखबारों के साथ इंडियन एक्सप्रेस ने भी इसका जमकर विरोध किया। कुलदीप नैयर जी के अलावा और भी जिन पत्रकारों को परेशान किया गया, गिरफ्तार किया गया उसका विरोध हुआ। रामनाथ गोयनका जी तो अपनी धुरंधर पत्रकारिता के लिए जग विख्यात रहे और इमरजेंसी का उनकी प्रेस ने भी सबसे ज्यादा विरोध किया लेकिन लगता है शेखर गुप्ता जी के कार्यकाल में सब बदल गया है। जिस तरह अब महिमामंडन किया जा रहा है उससे रामनाथ गोयनका जी की आत्मा को तड़प उठी होगी कि मेरे पत्रकारिता के साम्राज्य में यह कौन संपादक आ गया। विनोद जी आप इंडियन एक्सप्रेस की इमरजेंसी के समय की भूमिका, उसके विरोध और रामनाथ गोयनका जी के बारे में अगली पोस्ट में जरुर लिखें ताकि लोग सच्चाई जान सकें। श्रीमती इंदिरा गांधी का देश की राजनीति में अहम योगदान रहा लेकिन उजले पहलूओं के बीच इमरजेंसी जैस काला पक्ष भी है जो कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। मुझे यह समझ नहीं आ रहा कि भारतीय प्रेस को अचानक 25 साल बाद इंदिरा गांधी प्रेम क्यों हो गया। आपने लिखा कि किसी के पास उत्तर नहीं है कि हम रजत जंयति मना रहे है क्या...। लगता है भावी हितों की खातिर अब कुछ प्रेस और पत्रकार समझौता तो नहीं कर रहे हैं और ये समझौते किसी भी हद तक के हो सकते हैं...जिनमें प्रधानमंत्री का प्रेस सलाहकार बनना या राज्यसभा में पहुंचना अथवा और भी कुछ हो।
श्रि एस,एन, विनोद जि,
धन्यवाद एक टिप्पणी के विषय पर ध्यान देने के लिए।
परन्तु एक एस,पी, दुबे की ही नही लाखो, करोडो लोगो की धारणा की पुष्टि होती जा रही है दिन प्रतिदिन, वर्तमान व्यवस्था मे जनसाधारण का विश्वास उठ चुका है हम यह अतिसयोक्ति मे नही होश मे लिख रहा हू यदि व्यवस्था को होश नही आया तो वह दिन दूर नही है जब जनता व्यवस्था अपने हाथ मे ले लेगी तो उस समय की अवस्था क्या होगी कल्पनाती परिणाम की कल्पना मे दिल दहल जाता है, जनसामान्य कभी समाप्त नही होता है और वयस्था अपनी दुर्गति को प्राप्त हो कर समाप्त हो जाती है, हो जायेगी, होगइ है इतिहास साक्षी है।
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